Monday 14 September 2020

अप्रतिम जीवनी-शक्तिवाली और संघर्षशील भाषा : हिन्दी

अप्रतिम जीवनी-शक्तिवाली और संघर्षशील भाषा  :  हिन्दी

जब कोई राष्ट्र अपने गौरव में वृद्धि करता है तो वैश्विक दृष्टि से उसकी प्रत्येक विरासत महत्त्वपूर्ण हो जाती है। परम्पराएँ, नागरिक दृष्टिकोण और भावी संभावनाओं के केन्द्र में ‘भाषा’ महत्त्वपूर्ण कारक बनकर उभरती है, क्योंकि अंततः यही संवाद का माध्यम भी है। भाषा अभिव्यक्ति का साधन होती है। भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम होती है। हमारी भावनाओं को जब शब्द-देह मिलता है, तो हमारी भावनाएं चिरंजीव बन जाती है।  इसलिए भाषा उस शब्द-देह का आधार होती है। भारतेंदु हरिश्चन्द्र जी का कथन दृष्टव्य है :-

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।
विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार।
सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार।।

हिन्दी भारोपीय परिवार की प्रमुख भाषा है। यह विश्व की लगभग तीन हजार भाषाओं में अपनी वैज्ञानिक विशिष्टता रखती है। मान्यता है कि हिंदी शब्द का सम्बन्ध संस्कृत के 'सिंधु' शब्द से माना जाता है। सिंधु का तात्पर्य  'सिंधु' नदी से है। यही 'सिंधु' शब्द ईरान में जाकर 'हिन्दू' , 'हिंदी' और फिर 'हिन्द' हो गया और इस तरह इस भाषा को अपना एक नाम 'हिन्दी' मिल गया । हिन्दी के विकास के अनेक चरण रहे हैं और प्रत्येक चरण में इसका स्वरूप विकसित हुआ है। वैदिक संस्कृत, संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश और उसके पश्चात् विकसित उपभाषाओं और बोलियों के समुच्चय से हिन्दी का अद्यतन रूप प्रकट हुआ है, जो अद्भुत है।
        पूरे विश्व को एक सूत्र में पिरो कर रखने वाली हम सब की भाषा 'हिन्दी' सम्पूर्ण भारत की जन भाषा, राष्ट्रभाषा और राजभाषा है। हिन्दी हमारी शान है, हिन्दी हमारा गौरव है । यह जन-जन की आशा और आकांक्षाओं का मूर्त्त रूप है और हमारी पहचान है । जब भी बात देश की उठती है तो हम सब एक ही बात दोहराते हैं, “हिंदी हैं हम, वतन है हिंदोस्तां हमारा“। यह पंक्ति हम हिंदुस्तानियों के लिए अपने आप में एक विशेष महत्व रखती है। हिंदी अपने देश हिंदुस्तान की पहचान है।

हिंदी केवल एक भाषा ही नहीं हमारी मातृभाषा है। यह केवल भावों की अभिव्यक्ति मात्र न होकर हृदय स्थित सम्पूर्ण राष्ट्रभावों की अभिव्यक्ति है। हिंदी हमारे अस्मिता का परिचायक , संवाहक और रक्षक है। सही अर्थो में कहा जाए तो विविधता वाले भारत अपने को हिंदी भाषा के माध्यम से एकता के सूत्र में पिरोये हुए है। भारत विविधताओं का देश है। यहां पर अलग-अलग पंथ, जाति और लिंग के लोग रहते हैं, जिनके खान-पान, रहन-सहन,भेष-भूषा एवं बोली आदि में बहुत अंतर है।  लेकिन फिर भी अधिकतर लोगों द्वारा देश में हिन्दी भाषा की बोली जाती है।  हिन्दी भाषा हम सभी हिन्दुस्तानियों को एक-दूसरे से जोड़ने का काम करती है। वास्तव में,हिन्दी हमारे देश की राष्ट्रीय एकता, अखंडता एवं समन्वयता का भी प्रतीक है।

     हिन्दी की लिपि-देवनागरी की वैज्ञानिकता सर्वमान्य है। लिपि की संरचना अनेक मानक स्तरों से परिष्कृत हुई है। यह उच्चारण पर आधारित है, जो उच्चारण-अवयवों के वैज्ञानिक क्रम- कंठ, तालु, मूर्धा, दंत, ओष्ठ आदि से निःसृत हैं। प्रत्येक ध्वनि का उच्चारण स्थल निर्धारित है और लेखन में विभ्रम की आशंकाओं से विमुक्त है। अनुच्चरित वर्णों का अभाव, द्विध्वनियों का प्रयोग, वर्णों की बनावट में जटिलता आदि कमियों से बहुत दूर है। पिछले कई दशकों से देवनागरी लिपि को आधुनिक ढंग से मानक रूप में स्थिर किया है, जिससे कम्प्यूटर, मोबाइल आदि यंत्रों पर सहज रूप से प्रयुक्त होने लगी है। स्वर-व्यंजन एवं वर्णमाला का वैज्ञानिक स्वरूप के अतिरिक्त केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय द्वारा हिन्दी वर्तनी का मानकीकरण भी किया गया, जो इसकी वैश्विक ग्राह्यता के लिए महत्त्वपूर्ण कदम है। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी की पंक्तियां दृष्टव्य है:-

है भव्य भारत ही हमारी मातृभूमि हरी-भरी ।
हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा और लिपि है नागरी ।।
                   
हिन्दी में साहित्य-सृजन परम्परा एक हजार वर्ष से भी पूर्व की है। आठवीं शताब्दी से निरन्तर हिन्दी भाषा गतिमान है। पृथ्वीराज रासो, पद्मावत, रामचरितमानस, कामायनी जैसे महाकाव्य अन्य भाषाओं में नहीं हैं। संस्कृत के बाद सर्वाधिक काव्य हिन्दी में ही रचा गया। हिन्दी का विपुल साहित्य भारत के अधिकांश भू-भाग पर अनेक बोलियों में विद्यमान है, लोक-साहित्य व धार्मिक साहित्य की अलग संपदा है और सबसे महत्त्वपूर्ण यह महान् सनातन संस्कृति की संवाहक भाषा है, जिससे दुनिया सदैव चमत्कृत रही है। उन्नीसवीं शती के पश्चात् आधुनिक गद्य विधाओं में रचित साहित्य दुनिया की किसी भी समृद्ध भाषा के समकक्ष माना जा सकता है। साथ ही दिनों-दिन हिन्दी का फलक विस्तारित हो रहा है, जो इसकी महत्ता को प्रमाणित करता है।

हिन्दी और विश्व भाषा के प्रतिमानों का यदि परीक्षण करें तो न्यूनाधिक मात्रा में यह भाषा न केवल खरी उतरती है, बल्कि स्वर्णिम भविष्य की संभावनाएँ भी प्रकट करती है। आज हिन्दी का प्रयोग विश्व के सभी महाद्वीपों में प्रयोग हो रहा है। आज भारतीय नागरिक दुनिया के अधिकांश देशों में निवास कर रहे हैं और हिन्दी का व्यापक स्तर पर प्रयोग भी करते हैं, अतः यह माना जा सकता है कि अंग्रेजी के पश्चात् हिन्दी अधिकांश भू-भाग पर बोली अथवा समझी जाने वाली भाषा है।                
भारतवर्ष के ललाट की बिन्दी, अर्थात "हिन्दी भाषा" को आज़ के ही दिन 14 सितम्बर 1949 को अनुच्छेद, 343(1) के तहत संविधान सभा के सामूहिक मत द्वारा राजभाषा के रूप मेंं अपनाया गया है। वर्धा समिति के सिफ़ारिश पर 1953 से प्रतिवर्ष 14 सितम्बर की तिथि को उत्सवपूर्वक "हिन्दी दिवस" के रूप मेंं मनाया जाता है। वर्तमान में हिन्दी को संविधान के द्वारा राजभाषा का पद मिला हुआ है, इस हेतु संवैधानिक प्रावधानों व विभिन्न आयोगों की सिफारिशों को क्रियान्विति का प्रयत्न हुआ है, किन्तु राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी अभी तक समुचित अधिकार प्राप्त नहीं कर पाई है, जो विचारणीय है। उन कारकों का अध्ययन किया जाना चाहिए, जो कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा पद पर अधिष्ठित कर सके। हिन्दी को राष्ट्रभाषा के गौरव से विभूषित करने हेतु हमें  एकजुट होना होगा । आइए, हम हिन्दी के प्रसार के लिए कृतसंकल्प होकर एक स्वर से कहें कि "हिन्दी हमारे माथे की बिन्दी है"। हमें यह प्रण भी लेना होगा कि हम हिन्दी को अपने उस शीर्षस्थ  स्थान पर प्रतिष्ठित कर दें कि हमें हिन्दी-दिवस मनाने जैसे उपक्रम न करने पड़ें और हिन्दी स्वतःस्फूर्त भाव से मूर्द्धाभिषिक्त हो ।

हिन्दी अप्रतिम जीवनी-शक्तिवाली और संघर्षशील भाषा के रूप में उभरती हुई अपना मुक़ाम तय कर रही है । हमें अपनी भाषा से प्रेम और आत्मीयता विकसित करते हुए इसके सही उपयोग के प्रति सचेष्ट रहना चाहिये । यदि हमारी प्रतिबद्धता निरंतर सजग और उत्साही बनी रही तो वह दिन दूर नहीं, जब हमारी भाषा 'हिन्दी' विश्व में सिरमौर होगी ।

     इस गौरवमयी 'हिन्दी दिवस' पर समस्त साहित्यसाधक, सुधी मनीषियों, लब्धप्रतिष्ठ-महानुभावों, शिक्षा व साहित्य की शृंखला से जुड़े हर एक व्यक्तित्व को अक्षररूपी पुष्पांजलि से कोटिशः शुभकामनाएं..!!!

                   ✍️ - डॉ. सुरेन्द्र शर्मा
                   शिमला (हिमाचल प्रदेश)

Friday 11 September 2020

हिन्दी भाषा एवं साहित्य


हिन्दी भाषा एवं साहित्य के विकास में हिन्दुस्तानी एकेडेमी का योगदान
                                          -डॉ. मुकेश कुमार

हिन्दी दरबार की भाषा कभी नहीं थी। वह सन्तों और सामान्य लोगों की भाषा थी। मध्यकाल में पंजाब से लेकर केरल तथा बंगाल से लेकर गुजरात तक भक्ति की जो लहर आई उसके साथ हिन्दी का सहज ही विकास हो गया।
हिन्दुस्तानी एकेडेमी उत्तर प्रदेश की प्राचीनतम् संस्थाओं में से महत्त्वपूर्ण संस्था है। हिन्दी भाषा और साहित्य के विकास में उसका सर्वोच्च स्थान है। वह संस्था हिन्दी, उर्दू तथा लोक भाषाओं के संवर्धन एवं विकास के लिए निरन्तर प्रयत्नशील है। हिन्दुस्तानी एकेडेमी की स्थापना 29 मार्च सन् 1927 ई. में हुई। इसका मुख्यालय प्रयागराज में विराजमान है। हिन्दी व उसकी सहयोगी भाषाओं को समृद्ध व लोकप्रिय बनाने में एकेडेमी का योगदान महत्त्वपूर्ण है।
‘‘हिन्दुस्तानी एकेडेमी का उद्देश्य प्रारम्भ से लेकर सन् 1957 तक हिन्दी और उर्दू साहित्य की रक्षावृद्धि रहा, साथ ही भिन्न-भिन्न विषयों की उच्चकोटि की पुस्तकों पर पुरस्कार तथा दूसरी भाषाओं की पुस्तकों का अनुवाद कर प्रकाशित करना रहा है किन्तु आजादी के बाद इसमें परिस्थितिवश युगान्तकारी परिवर्तन हुए और जनतान्त्रिक शासन और जनता, दोनों ओर से भाषा और साहित्य के सम्बन्ध में नीति-परिवर्तन का विचार उठने लगा।’’1
एकेडेमी का ज्ञापन-पत्रः एकेडेमी का ज्ञापन-पत्र निकाला गया जिसमें संस्था का नाम हिन्दुस्तानी एकेडेमी होगा। इस संस्था का उद्देश्य होगा कि वह निम्नलिखित तरीके से उर्दू और हिन्दी साहित्य का संवर्धन करे-
(क) विभिन्न विषयों की अनुमोदित पुस्तकों को पुरस्कृत करके।
(ख) अन्य भाषाओं की पुस्तकों का मानदेय देकर अथवा अन्य तरीके से, उर्दू तथा हिन्दी में अनुवाद करके तथा उन्हें प्रकाशित करके।
(ग) विश्वविद्यालयों तथा साहित्यिक संस्थाओं को अनुदान देकर अथवा अन्य तरीके से हिन्दी और उर्दू की मौलिक एवं अनुदित कृतियों को प्रोत्साहन देकर।
(घ) प्रतिष्ठित साहित्यकारों एवं विद्वानों को एकेडेमी का अधिसदस्य (फेलो) नियुक्त करके।
(ङ) सम्मानित अध्येताओं को एकेडेमी का सहत्तर नियुक्त करके।
(च) पुस्तकालय की स्थापना करके एवं उसका अनुरक्षण करके।
(छ) प्रतिष्ठित विद्वानों को व्याख्यान हेतु आमन्त्रित करके।
(ज) उपरोक्त उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए अन्य उपयोगी उपायों को लागू करके।’’2
एकेडेमी की नियमावलीः हिन्दुस्तानी एकेडेमी की स्थापना के बाद संकल्प-पत्र में संशोधन द्वारा 1933-34 ई. में इसकी नियमावली को सम्मिलित किया गया था। हिन्दुस्तानी एकेडेमी की नियमावली निम्न प्रकार से है-
मुख्यालयः हिन्दुस्तानी एकेडेमी का मुख्यालय इलाहाबाद (प्रयागराज) में स्थित होगा। जिसमें परिषद् के कुल सदस्यों के तीन चैथाई बहुमत से राज्य सरकार इसका मुख्यालय प्रान्त के किसी अन्य स्थान पर स्थापित कर सकती है।
गठनः हिन्दुस्तानी एकेडेमी का गठन निम्न प्रकार से है-
परिषद एवं कार्य समिति तथा समय-समय पर परिषद् द्वारा नियुक्त अधिसदस्यों से होगा।
परिषद् के अधिकार एवं गठनः परिषद् नीति सम्बन्धी समस्त सामान्य प्रश्नों का एकेडेमी के उद्देश्यों के अनुकूल समाधान करेगी। परिषद् के गठन में निम्न प्रकार के सदस्य सम्मिलित होंगे जिसमें अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, सात पदेन सदस्य, महासचिव, सरकार द्वारा नामित कार्य समिति के सदस्य, सरकार द्वारा नामित तीस सदस्य, परिषद् द्वारा नियुक्त अतिरिक्त सदस्य।
1957 में संशोधित ज्ञापन-पत्र  सन् 1957 में संशोधित ज्ञापन-पत्र इस प्रकार से है-
(1) संस्था का नाम हिन्दुस्तानी एकेडेमी होगा।
(2) हिन्दुस्तानी एकेडेमी के निम्नलिखित उद्देश्य होंगे-
(क) राजभाषा हिन्दी, उसके साहित्य तथा ऐसे अन्य रूपों और शैलियों जैसे उर्दू, ब्रजभाषा, अवधी, भोजपुरी आदि का परिरक्षण, संवर्धन और विकास, जिनकी उन्नति से हिन्दी समृद्ध हो सकती है।
(ख) मौलिक हिन्दी कृतियों, विशेषतया सृजनात्मक साहित्य का प्रोत्साहन एवं प्रकाशन।
(ग) हिन्दी भारतीय भाषाओं तथा विदेशी भाषाओं की साहित्यिक कृतियों, मुख्यतया काव्य, नाटक, कथा एवं ललित साहित्य का हिन्दी में अनुवाद कराना।
(घ) प्राचीन एवं मध्ययुगीन हिन्दी साहित्य को वैज्ञानिक रूप से सम्पादित पाठों का प्रकाशन।
वर्ष 2007 में नियमावली का भी संशोधन किया गया।
एकेडेमी का भवनः हिन्दुस्तानी एकेडेमी का भवन बहुत ही सौम्य है। हवादार कमरे व प्रकृति से ओत-प्रोत प्रांगण है। 
‘एकेडेमी का वर्तमान भवनः इसकी स्थापना 1927 ई. के 36 साल बाद नसीब हुआ। वर्तमान भवन के लिए उत्तर प्रदेश सरकार (उद्यान-विभाग) ने कम्पनी बाग के परिसर में एक जमीन 99 वर्षों के लिए लीज पर प्रदान की। यह आदेश दिनांक 21.11.1962 को गजट किया गया था। इस तिथि से 10 अप्रैल 2062 तक लीज की अवधि रहेगी। जिसे पुनः सरकारी आदेश से आगे बढ़ाया जा सकता है। यह लीज एक रुपये वार्षिक रूप से जमा किये जाने की शर्त पर है। इस वर्तमान भवन का शिलान्यास 8 जून 1963 ई. को पूर्व मुख्यमंत्री बाबू सम्पूर्णानंदजी ने किया था। भारत सरकार की अनुदानित सहायता तथा एकेडेमी की संचिता निधि की बची हुई धनराशि से यह वर्तमान भवन बनाकर तैयार हुआ। इस भवन का नाम हिन्दी भाषा के अनन्य प्रचारक राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन के नाम पर रखा गया। इस भवन के निर्माण में एकेडेमी के अध्यक्ष ‘चिन्तामणि घोष’, बालकृष्ण राव, इसके सचिव एवं कोषाध्यक्ष प्रसिद्ध पत्रकार विद्या भास्कर तथा इलाहाबाद विश्वविद्यालय के तत्कालीन हिन्दी विभाग के अध्यक्ष डॉ. उमाशंकर शुक्ल का भी विशेष सहयोग रहा है। यह भवन 1968 ई. में बनकर तैयार हुआ और अब से एकेडेमी का कार्यालय यहीं स्थित है।’’3
 

हिन्दुस्तानी एकेडेमी का पुस्तकालयः हिन्दुस्तानी एकेडेमी का पुस्तकालय अति समृद्ध है। इसमें लगभग 26000 महत्त्वपूर्ण पुस्तकें हैं। हिन्दी साहित्य में उच्च स्तरीय शोध के लिए यह पुस्तकालय अत्यन्त उपयुक्त है। हिन्दी भाषा के ऐसे भी सेवक हुए जिन्होंने अपनी निजी पुस्तकों को पुस्तकालय को देकर इसे समृद्ध किया है। ऐसे विद्वानों में डॉ. धीरेन्द्र वर्मा, बालकृष्ण राव तथा डॉ. बाबूराम सक्सेना का आरम्भिक योगदान अत्यन्त महत्त्व रखता है। इस दिशा में डॉ. राजेन्द्र कुमार वर्मा, डॉ. माता प्रसाद गुप्त के पुत्र डॉ. सालिगराम गुप्त, संगमलाल पाण्डेय, हरिमोहन मालवीय, डॉ. मीरा श्रीवास्तव, डॉ. जगदीश गुप्त आदि के नाम भी विशेष आदर के साथ याद किये जाते हैं। डॉ. राजेन्द्र कुमार वर्मा ने सन् 1966 में 120 पुस्तकें तथा 2000 ई. में 700 पुस्तकें प्रदान की। डॉ. सालिगराम गुप्त ने अपने पिता डॉ. माता प्रसाद गुप्त के संकलन से 300 महत्त्वपूर्ण पुस्तकें एकेडेमी पुस्तकालय को भेंट दी। हिन्दुस्तानी एकेडेमी के अध्यक्ष के रूप में हरिमोहन मालवीय ने एकेडेमी पुस्तकालय को बहुत समृद्ध किया। उनके प्रयास से सांसद चुन्नीलाल ने सांसद निधि से दो लाख रुपये की 28 आलमारियाँ तथा 30 रैक एकेडेमी पुस्तकालय को उपलब्ध कराए। जिस समय एकेडेमी की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी, उस समय इन महानुभावों के अनुराग का ही परिणाम है आज यह पुस्तकालय हिन्दी साहित्य में शोध एवं अनुसन्धान की दृष्टि से बहुत उपयोगी है। इस पुस्तकालय में हिन्दी जगत् की सभी महत्त्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाएँ उपलब्ध हैं। जिसमें सरस्वती, चाँद, हंस, माधुरी जैसी पुरानी पत्रिकाओं के अंकों का संग्रह इस एकेडेमी की धरोहर है।’’4
 

हिन्दुस्तानी शोध-पत्रिकाः हिन्दुस्तानी एकेडेमी की शोध त्रैमासिक पत्रिका ‘हिन्दुस्तानी  राष्ट्रीय स्तर की महत्त्वपूर्ण पत्रिका है। इस पत्रिका का प्रकाशन 1931 ई. में आरम्भ हुआ। इसके प्रथम सम्पादक श्री रामचन्द्र टण्डन थे। यह पत्रिका 1931 से 1948 ई. तक हिन्दी तथा उर्दू दोनों भाषाओं एवं उसकी लिपियों में निकलती रही। आर्थिक कारणों से 1948 ई. में इसे बन्द कर दिया। फिर 1958 ई. में इसे पुनः केवल ‘हिन्दी भाषा’में शुरू किया गया। तब से आज तक ‘हिन्दुस्तानी’ त्रैमासिक शोध पत्रिका निरन्तर प्रकाशित हो रही है। जब इसका पहला अंक 1931 ई. में प्रकाशित हुआ उसके सम्पादकीय विभाग में संपादक मण्डल के रूप में डॉ. ताराचन्द, डॉ. बेनी प्रसाद, डॉ. राम प्रसाद त्रिपाठी, डॉ. धीरेन्द्र वर्मा जैसे विद्वान सम्मिलित थे। इसके प्रथम सम्पादक जो एकेडेमी के सहायक सचिव थे। जब 1958 ई. में एक लम्बे अन्तराल के बाद ‘हिन्दुस्तानी’ त्रैमासिक शोध पत्रिका का पुनर्प्रकाशन शुरू हुआ तो इसके सम्पादक डॉ. माता प्रसाद गुप्त जी बने। और इनके बाद डॉ. हरदेव बाहरी, डॉ. ब्रजेश्वर वर्मा, डॉ. रामकुमार वर्मा, डॉ. जगदीश गुप्त, डॉ. रामकमल राय जैसे विद्वानों द्वारा अदा किया गया। वर्तमान समय में ‘हिन्दुस्तानी’ पत्रिका के सम्पादक रविनन्दन सिंह जी रहे जिन्होंने पत्रिका संपादन का कार्य पूरी ईमानदारी के साथ किया। अब इस पत्रिका के संपादक डॉ. उदय प्रताप सिंह, प्रबंध संपादक, अजय कुमार व पायल सिंह और ‘सहायक सम्पादक’ ज्योतिर्मयी जी हैं। ‘हिन्दुस्तानी’ त्रैमासिक शोध पत्रिका के कुछ अंक महत्त्वपूर्ण साहित्यकारों पर विशेषांक निकले हैं। जो इस प्रकार से हैं-सियारामशरण गुप्त विशेषांक, अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ विशेषांक, महादेवी वर्मा विशेषांक, डॉ. रामकुमार वर्मा विशेषांक, इस्मत चुग़ताई विशेषांक, मुक्तिबोध विशेषांक, शिव प्रसाद सिंह विशेषांक। कुछ विशेषांक भाषा पर भी निकले जिसमें अवधी, बुन्देली भाषा संयुक्तांक ब्रज भाषा विशेषांक आदि। हमारे भारतीय पर्व पर वर्ष 2019 में प्रयाग में कुंभ का मेला लगा था जिसमें एकेडेमी ने ‘कुंभ विशेषांक’ निकाला। जो बहुत ही महत्त्वपूर्ण रहा।

परिषद् एवं कार्य समितिः हिन्दुस्तानी एकेडेमी की परिषद् एवं कार्य समिति के सदस्य शासन द्वारा नामित किए गये। जिसमें हिन्दी जगत के प्रायः सर्वोच्च साहित्यकार एकेडेमी की परिषद् अथवा कार्य समिति में किसी न किसी से जुड़े रहे। जिसमें अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, मुन्शी प्रेमचन्द, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल आदि। इन्हीं महान साहित्यकारों के कारण यह हिन्दुस्तानी एकेडेमी प्रफुल्लित हुई और वर्तमान में भी हिन्दी सेवा में लीन है।
परिषद्ः 1927-1930 इसमें पं. अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, मुन्शी प्रेमचन्द (उर्दू-बाबू धनपतराय बी.ए.), श्रीधर पाठक, बाबू जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’ आदि।
सत्र-1930-1933 : ठाकुर गोपाल शरण सिंह, डॉ. धीरेन्द्र वर्मा
सत्र-1933-1936: आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, पं. सद्गुरु शरण अवस्थी
सत्र-1936-1939 : पं. रामनारायण मिश्र, जयशंकर प्रसाद, रायबहादुर सुखदेव बिहारी मिश्र।
सत्र-1943-1946 : महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पंत, रामकुमार वर्मा, वासुदेवशरण अग्रवाल, पं. केशव प्रसाद मिश्र।
सत्र-1952-1956 : सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन, सम्पूर्णानन्द, माता प्रसाद गुप्त, वृंदावनलाल वर्मा आदि।
सत्र-1968-1972 : बालमुकुंद गुप्त, विद्यानिवास मिश्र, लक्ष्मीसागर वाष्र्णेय, विजेन्द्र स्नातक।
सत्र-1972-1974 : रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’, भगवतीचरण वर्मा, रामविलास शर्मा आदि।
सत्र-1975-1977 : हजारी प्रसाद द्विवेदी, अमृतलाल नागर, रामस्वरूप चतुर्वेदी, श्रीलाल शुक्ल, गोपाल सिंह नेपाली।
सत्र-1981-1984 : रामकुमार वर्मा, जगदीश गुप्त, रामचन्द्र मिश्र, प्रभात शास्त्री, नामवर सिंह आदि।
सत्र-1984-1987 : महादेवी वर्मा, रामकुमार वर्मा, कपिलदेव द्विवेदी।
सत्र-1987-1990 : जगदीश गुप्त, शिवमंगल सिंह ‘सुमन’, राममूर्ति त्रिपाठी, राजलक्ष्मी वर्मा, रामचन्द्र तिवारी आदि।
सत्र-1991-1993 : शिव प्रसाद सिंह, किशोरी लाल गुप्त आदि।
सत्र-1995-1997 : लक्ष्मीकांत वर्मा, सत्यप्रकाश मिश्र आदि।
सत्र-1997-2000 : विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, कुंवर बेचैन आदि।
सत्र-2001-2005 : हरिमोहन मालवीय, कमल किशोर गोयनका, शिवमूर्ति सिंह आदि।
सत्र-2005-2008 : योगेन्द्र प्रताप सिंह, राजेन्द्र कुमार आदि।
सत्र-2009-2010 : राम केवल (सचिव), सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी (कोषाध्यक्ष) प्रमुख सचिव, भाषा एकेडेमी के पदेन अध्यक्ष रहे तथा परिषद् गठन नहीं हुआ।
सत्र-2010-2011 : प्रदीप कुमार, इन्द्रजीत विश्वकर्मा।
सत्र-2011-2016 : सुनील जोगी, बृजेश चन्द्र, रविनन्दन सिंह।
सत्र-2016-2018 : सुनील जोगी, नरेन्द्र प्रताप सिंह, रविनन्दन सिंह।
सत्र-2018 से- उदय प्रताप सिंह (अध्यक्ष), रविन्द्र कुमार, विजय त्रिपाठी, आभा द्विवेदी आदि।’’5

हिन्दुस्तानी एकेडेमी के पुरस्कार : 
हिन्दुस्तानी एकेडेमी पुरस्कार 1928 ई. में एकेडेमी की स्थापना के एक वर्ष बाद शुरू हो गया था। इसकी धनराशि प्रत्येक साहित्यकार के लिए 500 रु. निर्धारित की गयी। सर्वप्रथम हिन्दी के दो साहित्यकारों को पुरस्कार दिया गया जिसमें मुन्शी प्रेमचन्द (‘रंगभूमि’ उपन्यास पर व बाबू जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’ (गंगावतरण रचना) पर दिया गया। इसके उपरांत बाबू गुलाब राय, रामनरेश त्रिपाठी, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल (हिन्दी साहित्य का इतिहास) 1930-1931 में, जैनेन्द्र कुमार (परख), मैथिलीशरण गुप्त (साकेत-1932-1933), भगवतीचरण वर्मा (भूले बिसरे चित्र (1969-70), कुंवर नारायण (आत्मजयी 1970-71), लक्ष्मीकांत वर्मा, समग्र साहित्य (1996-97), नामवर सिंह (समग्र साहित्य पर 1997-98) दिया गया। इस समय इस पुरस्कार की राशि 25,000 रु. थी। 22 वर्षों के पश्चात् हिन्दुस्तानी एकेडेमी ने पुनः वर्ष 2019 में पुरस्कार दी जाने की घोषणा की। इस समय वर्तमान अध्यक्ष डॉ. उदय प्रताप सिंह व उत्तर प्रदेश शासन के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी की अध्यक्षता में फैसला लिया गया। जिसमें पुरस्कार नियमावली अनुसार पुरस्कारों के नाम व राशि विवरण दिया गया जो इस प्रकार से है-
1. ‘गुरु गोरक्षनाथ शिखर सम्मान’-राशि 5,00000 - डॉ. अनुज प्रताप सिंह को मिला।
2. ‘तुलसी सम्मान’-2,50,000 - डॉ. सभापति मिश्र।
3. ‘भारतेन्दु हरिश्चन्द्र सम्मान’- 2,00,000 - डॉ. रामबोध पांडेय
4. ‘महावीर प्रसाद द्विवेदी सम्मान’-2,00,000 - प्रो. योगेन्द्र प्रताप सिंह
5. ‘महादेवी वर्मा सम्मान’-1,00,000 - डॉ. सरोज सिंह
6. ‘फ़िराक़ गोरखपुरी सम्मान’-1,00,000 - शैलेन्द्र मधुर
7. ‘बनादास अवधी सम्मान’-1,00,000 - आद्या प्रसाद सिंह
8. ‘भिखारी ठाकुर भोजपुरी सम्मान’-1,00,000 - बृजमोहन प्रसाद
9. ‘कुंभनदास ब्रज भाषा सम्मान’-1,00,000 - डॉ. ओंकारनाथ द्विवेदी
10. ‘ईसुरी बुन्देली सम्मान’-1,00,000
11. ‘हिन्दुस्तानी एकेडेमी युवा लेखन सम्मान’-11,000 विश्वभूषण आदि।
इस अवसर पर समस्त हिन्दुस्तानी एकेडेमी परिवार माननीय मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी आवास पर उपस्थित रहा। और कार्यक्रम का संचालन एकेडेमी के कोषाध्यक्ष रविनन्दन सिंह ने किया। वर्ष 2020 में हिन्दुस्तानी एकेडेमी द्वारा सर्वोच्च सम्मानों की घोषणा की गयी जिसमें ‘गुरु गोरक्षनाथ शिखर सम्मान’ डॉ. प्रदीप राव जी को मिलेगा और तुलसी सम्मान महान पांडुलिपियों के मर्मज्ञ विद्वान उदयशंकर दूबे जी को उनकी सबसे महत्त्वपूर्ण पुस्तक ‘रामचरितमानस की पांडुलिपियाँ ज्ञात-अज्ञात तथ्य’ पर मिलेगा। वास्तव में यह पुस्तक व इसका लेखक तुलसी सम्मान के हकदार हैं।
हिन्दुस्तानी एकेडेमी के अध्यक्षों की सूची इस प्रकार से है-
1. डॉ. सर तेज बहादुर सप्रू - 1927-1937
2. राय राजेश्वर रबली - 1938-1944
3. न्यायमूर्ति श्री कमलाकांत वर्मा - 1945-1962
4. चिन्तामणि बालकृष्ण राव - 1962-1972
5. न्यायमूर्ति सुरेन्द्रनाथ द्विवेदी - 1972-1974
6. डॉ. रामकुमार वर्मा - 1975-1990
7. डॉ. जगदीश गुप्त - 1991-1994
8. रामकमल राय - 1995-1997
9. हरिमोहन मालवीय - 1998-2005
10. कैलाश गौतम - 2005-2006
11. प्रो. योगेन्द्र प्रताप सिंह - 2007-2007
12. डॉ. सुनील जोगी - 2013-2017
13. डॉ. उदय प्रताप सिंह - 2018 से
साहित्यकारों के एकेडेमी में परिसंवाद : हिन्दुस्तानी एकेडेमी में हिन्दी-भाषा और साहित्य के विकास हेतु हिन्दी साहित्य के बड़े-बड़े साहित्यकार परिसंवाद करते थे। जिसमें अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, सुमित्रानंदन पंत, बाबू श्यामसुंदर दास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी, विद्यानिवास मिश्र, जगन्नाथदास रत्नाकर, रामधारी सिंह दिनकर, केशव प्रसाद मिश्र, जगदीश गुप्त, रामस्वरूप चतुर्वेदी, रामनिवास शर्मा, नामवर सिंह आदि। इन महत्त्वपूर्ण साहित्यकारों के जब चरण एकेडेमी के प्रांगण में पड़ते थे तो उस समय एकेडेमी में साहित्य की खुशबुू चारों तरफ़ फैल जाती थी। इसी प्रकार से सन् 1971 में डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी ने ‘रचना की प्रासंगिकता का निकष’ पर अपने विचार रखे उसके कुछ महत्त्वपूर्ण अंश इस प्रकार से है-‘‘जब रचना लिखी जाती है तब उस परिवेश में वह कितनी सार्थक होती है और समय के बढ़ते हुए विकास के साथ उसकी प्रासंगिकता क्या है, हमें इन दोनों बातों पर विचार करना चाहिए। दूसरे शब्दों में जब रचना लिखी जा रही है तब उसकी सार्थकता क्या है और युगों-युगों तक सार्थकता क्या रहती है इस पर हमें विचार करना है। प्रायः मूल्यांकन के समय हम इन दोनों बातों को पृथक्-पृथक् कर लेते हैं। रचना की प्रासंगिकता के अन्तर्गत हमें इन दोनों पक्षों पर ध्यान देना है- केवल एक पक्ष पर नहीं वरन् सम्पूर्ण स्थित पर।’’6
हिन्दी की प्रकृति, स्वरूप तथा विकास में डॉ. धीरेन्द्र वर्मा जी हिन्दुस्तानी एकेडेमी के परिसंवाद में कहते हैं-‘‘हिन्दी की प्रकृति या विश्लेषण सुंदर ढंग से किया गया है। जो अहिन्दी प्रदेश के लोग हैं, उन्हें हिन्दी की प्रकृति के सम्बन्ध में कुछ कठिनाई पड़ती है। वे इसे सीखने के लिए इसमें कुछ परिवर्तन चाहते हैं।’’7
डॉ. हरदेव बाहरी जी कहते हैं-‘‘मैं शब्दों को भाषा का कलेवर मानता हूँ। मैंने अपने लेख में, जो भाषा है, उसी का व्याकरण रखा है। आज जो बोलचाल की भाषा है, वह आगे चलकर हिन्दी होगी।’’8
वर्तमान युग में काव्यभाषा की समस्याएँ : इस विषय के परिसंवाद में विद्यानिवास मिश्र जी ने कहा है कि-‘‘संचार माध्यमों में छापाखाना एक पहला कदम था। इसकी शुरुआत चीन में बहुत पहले हो गयी थी। पश्चिम में तो बाद में हुई।’’9
महादेवी वर्मा जी ने अपने अन्त में अध्यक्षा पद से बोलते हुए कहा-‘‘काव्य भाषा का प्रश्न या समस्या किसी कवि की समस्या नहीं है। यह आलोचक की हो सकती है। जब कविता लिखी जाती है। उसके बाद ही आलोचक पैदा होता है। छायावादी कवियों को तो आलोचक ही नहीं मिले। कवि की समस्या अभिव्यक्ति की होती है।’’10
हिन्दी के विकास के साथ क्षेत्रीय भाषाओं में उच्च शिक्षा की व्यवस्था की जाये। इससे ज्ञान का जनता से सीधा सम्बन्ध होगा और देश की प्रगति होगी इस दिशा में देश की विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं ने महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। इसमें नागरी प्रचारिणी सभा, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, हिन्दुस्तानी एकेडेमी आदि प्रमुख हैं।
हिन्दुस्तानी एकेडेमी के द्वारा समय-समय पर हिन्दी भाषा और साहित्य के विकास में अधिवेशन होते रहे। वह समय-समय पर संगोष्ठियाँ, संवाद आदि होते रहे वह हो रहे हैं। जैसे मध्ययुगीन हिन्दी कविता में स्त्री-चेतना, वीर रस के मूर्धन्य कवि पं. श्यामनारायण पाण्डेय, मैथिलीशरण गुप्त और उनका युग बोध, भाषा चिंतन और भारतीय परम्परा, गोदान कल और आज, परिष्कृत गद्य के प्रवत्र्तक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, खड़ी बोली हिन्दी के विकास में प्रियप्रवास का योगदान, रामधारी सिंह दिनकर की राष्ट्रीय-सांस्कृतिक चेतना, सेवासदन के 100 वर्ष, कथाकार शिव प्रसाद सिंह, प्रसाद का काव्य चिन्तन।
हिन्दुस्तानी एकेडेमी द्वारा प्रकाशित महत्त्वपूर्ण ग्रंथ
‘नाथ सम्प्रदाय : विविध आयाम’, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, ‘प्रेमचन्द सृजन एवं चिन्तन’, ‘कबीर और कबीर के प्रतिबिम्ब’, ‘निराला : काव्य चेतना के अन्तद्र्वन्द्व’, ‘महाकवि सुमित्रानंदन पंत : सृजन एवं चिन्तन’, ‘रामविलास शर्मा और हिन्दी आलोचना’, ‘हिन्दी नाटक और रंगमंच’, ‘लोक साहित्य : अभिव्यक्ति और अनुशीलन’, ‘जायसी आलोचना के निकष पर’, ‘सूर काव्य : दृष्टि एवं विमर्श’, ‘तुलसी साहित्य : अभिव्यक्ति के विविध स्वर’ आदि महत्त्वपूर्ण ग्रंथों का प्रकाशन किया जिससे हिन्दी भाषा और साहित्य के संवर्धन में हिन्दुस्तानी एकेडेमी का अपना एक महत्त्वपूर्ण योगदान है।
सारांश रूप में कहा जाता है कि हिन्दुस्तानी एकेडेमी सन् 1927 ई. से हिन्दी भाषा एवं साहित्य के संवर्धन के सम्बन्ध में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। विभिन्न भाषाओं, क्षेत्रीय बोलियों पर विभिन्न प्रांतों में अधिवेशन करना, साहित्यकार को उत्कृष्ट रचना पर सम्मान देकर उसे प्रेरित करना, विभिन्न व्याख्यान मालाओं का आयोजन करना, संगोष्ठियों का आयोजन करना और उच्च शोध त्रैमासिक पत्रिका का प्रकाशन करना। उच्च स्तर का पुस्तकालय भवन जिसमें महत्त्वपूर्ण साहित्य उपलब्ध है। ताकि हिन्दी के शोधार्थियों को शोध के दौरान किसी भी प्रकार की कठिनाई का सामना न करना पड़े। इसी प्रकार से वर्तमान समय में भी एकेडेमी निरन्तर हिन्दी साहित्य की सेवा में प्रयासरत है।

 

संदर्भ
1. रविनन्दन सिंह-हिन्दुस्तानी एकेडेमी का इतिहास, पृ. आमुख।
2. वही, पृ. 26
3. वही, पृ. 46
4. वही, पृ. 47
5. वही, पृ. 49 से 89 तक।
6. संपा. रविनन्दन, हिन्दुस्तानी एकेडेमी के परिसंवाद, पृ. 22
7. वही, पृ. 91
8. वही, पृ. 93
9. वही, पृ. 147
10. वही, पृ. 206


✍️डॉ. मुकेश कुमार
ग्राम-हथलाना, पोस्ट-मंजूरा
जिला-करनाल, हरियाणा
मोबाइलः 9896004680

Monday 7 September 2020

भारतीय संस्कृति के उन्नायक : प्रो.प्रदीप के. शर्मा



भारतीय संस्कृति के उन्नायक :  प्रो. प्रदीप के. शर्मा  
                                                -डॉ. मुकेश कुमार
               साहित्यकार :  प्रो. प्रदीप के. शर्मा

भारत भूमि पवित्र भूमि है। भारत देश मेरा तीर्थ है। भारत में सर्वस्व है; भारत की पुण्यभूमि का अतीत गौरवमय है, यही वह भारतवर्ष है, जहाँ मानव प्रकृति एवं अन्तर्गत के रहस्यों की जिज्ञासाओं के अंकुर पनपे हैं।
किसी भी साहित्यिक या वैचारिक वातावरण सदैव उसके परिवेशगत पर्यावरण से रचनात्मक ऊर्जा ग्रहण करता है। परिवेशगत पर्यावरण का मूलाधार संस्कृति होती है। संस्कृति शब्द सम् उपसर्ग के साथ संस्कृति की (डु) कृ (त्र्) धातु से बनता है, जिसका मूल अर्थ साफ या परिष्कृत करना है। संस्कृति शब्द का प्रयोग दो अर्थों में होता है, व्यापक अर्थ में उक्त शब्द का अर्थ नर-विज्ञान में किया जाता है, जिसमें संस्कृति सामाजिक परम्परा से अर्जित व्यवहार है और संकीर्ण अर्थ में संस्कृति उन गुणों का समुदाय है जो व्यक्ति को परिष्कृत करते हैं।’’1

‘संस्कृति’ जीवन जीने की एक पद्धति का नाम है। संस्कृति और सभ्यता दो अलग-अलग शब्द हैं। सभ्यता वेशभूषा, रहन-सहन, खान-पान आदि पक्षों तक ही सीमित है जबकि संस्कृति चिन्तन से लेकर जीवन-व्यवहार एवं मानवीय संवेदना से लेकर समष्टिगत एकता जैसे पक्षों को स्पर्श करती है। सभ्यता वह है जो हमारे पास है, संस्कृति वह है जो हम स्वयं हैं।
प्रो. प्रदीप के. शर्मा जी का जन्म 1 अगस्त 1964 ई. को गोहाटी (असम) के अहिन्दी क्षेत्र में हुआ। उन्होंने हिन्दी-साहित्य के प्रति गहन प्रेम है और उनके पैतृक संस्कारों की छाप भी उनके व्यक्तित्व पर पड़ी। इसी परिणाम स्वरूप उनके जीवन-आदर्श स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी आदि का प्रभाव भी उनके व्यक्तित्व पर पड़ा जो हिन्दी सेवा का ध्वज अहिन्दी क्षेत्र में लहरा रहे हैं। यह भी एक भारतीय संस्कृति का मुख्य अंग ही नहीं आत्मा है। प्रदीप के. शर्मा जी राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी द्वारा लिखी गयी भारत-भारती रचना की इस पंक्ति से बहुत प्रभावित है-
मानस-भवन में आर्यजन जिसकी उतारे आरती-
भगवान! भारतवर्ष में गूँजे हमारी भारती।
हो भद्रभावोद्भाविनी वह भारती हे भगवते!
सीतापते! सीतापते!! गीतामते! गीतामते!’’ 2
प्रो. प्रदीप के शर्मा जी का जीवन सरल-सहज व परोपकारी है। उनकी एक ही सोच है-‘‘नेकी कर दरिया में बहा’’ वे सच्चे देशभक्त, हिन्दी-प्रेमी, लोक सेवक, भाषा प्रेमी, समाज में राष्ट्र प्रेम की शंखध्वनि का स्वर गुँजाने वाले हैं। उनके जीवन पर महाकवि ‘हरिऔध’ जी की इस पंक्ति का गहरा प्रभाव दिखाई देता है-
प्यारा है जितना स्वदेश,
उतना है प्राण प्यारा नहीं।
प्यारी है उतनी न कीर्ति,
जितनी उद्धार की कामना। 3
प्रो. प्रदीप के. शर्मा जी एक आदर्श गुरु हैं। वो हमेशा गुरु और शिष्य के पवित्र रिश्ते को महत्ता देते हैं। उनका मानना है कि समाज में ऐसे आचार्य (गुरु) की जरूरत है, जो व्यास जी के तुल्य हों, जो लोहे के समान बुरे व्यक्तियों को भी स्वर्ण में बदल दे। अर्थात् सबके जीवन में अच्छे संस्कार भर दें। हमें ऐसे आचार्य की जरूरत है जो समाज में माया के लोभ से अपनी प्रतिष्ठा को न खोयें। अपने कर्म और धर्म को पैसे के समान न समझें, उसकी तुलना पैसे से न करें। वही गुरु (आचार्य) समाज के लिए उपयोगी होगा। क्योंकि वह स्वयं भी ऐसे ही हैं। महाकवि हरिऔध की इन पंक्तियों का प्रभाव उनके जीवन पर व्यापक दिखाई देता है। वो जो कहते हैं वो करते भी हैं-
गुरु चाहिए हमें ठीक पारस के ऐसा।
जो लोहे को कसर मिटा सोना कर डाले।।
टके लिए धूल में न निज मान मिलावे।
लोभ लहर में मूल न सुरुचि सुरीति बहाले।।
हमें चाहिए सरल सुबोध पुरोहित ऐसा
जो घर-घर में सकल सुखों की सोत लगावे।।4
भारतीय संस्कृति बहुत व्यापक और विस्तृत है। भारतीय संस्कृति की गौरव-गाथा उज्ज्वल एवं महान है। सृष्टि की अन्य संस्कृतियों में भारतीय संस्कृति महानतम है। इसमें मानवतावाद और विश्व बन्धुत्व की भावना निहित है। यह विश्व बन्धुत्व एवं ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’की भावना से ओत-प्रोत है। प्रो. प्रदीप के. शर्मा जी के जीवन पर महाकवि गोस्वामी तुलसीदास जी की रामचरितमानस की इन पंक्तियों का प्रभाव दिखाई देता है-
‘‘प्रातः काल उठि कै रघुनाथ। मातु पिता गुरु नावाहि माथा
मातु-पिता अग्या अनुसरहीं।।’’5
‘‘प्रत्येक राष्ट्र की निजी संस्कृति होती है जो उसको एक सूत्र में पिरोये रखती है। रीति-रिवाज, साहित्य, शिक्षा, कला, रहन-सहन, जीवन-दर्शन एवं मान्यताओं का समाहार संस्कृति के अन्तर्गत हो जाता है। संस्कृति मानव जीवन वृक्ष का सुगन्धित पुष्प है।’’6
‘‘ संस्कृति विचार एवं ज्ञान दोनों व्यावहारिक एवं सैद्धांतिक का समूह है, जो केवल मनुष्यों के पास ही हो सकता है। संस्कृति उन तरीकों का कुल योग है जिनके द्वारा मनुष्य अपना जीवन व्यतीत करता है। जो सीखने की प्रक्रिया द्वारा एक से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होता है।’’7
मानव संस्कृति का इतिहास इस बात का साक्षी है कि किसी वस्तु अथवा क्रिया का मूल्यांकन लोकहितैषणा एवं लोक निर्माण के निषक पर होता रहा। वह व्यक्ति साधु मान लिया गया जिसने परहित के लिए अपने सारे सुखों और ऐश्वर्यों का उत्सर्ग कर दिया, वह वस्तु सुन्दर बन गयी जिसका उपयोग लोक-जीवन को निर्विघ्न बनाने में हो सका और वह क्रिया धन्य हो गयीं जिससे लोक हृदय में सद्वृत्तियों का उन्मेष हुआ। किसी व्यक्ति के लिए इस निकष पर खरा उतरना तभी सम्भव है जब वह ‘यथा चितं तथा वाचो यथा वाचस्तथा क्रिया को अपने जीवन में अंगीकार करे। अपनी जीवन सत्ता, अर्जित महत्ता तथा उपलब्ध ऐश्वर्यता को जो समष्टि पर लुटा दे, वही मनुष्य महात्मा अथवा ऋषि कहा जाता है, इसके विपरीत, जो समाज की विभूति को लूटताहै वह असाधु तथा दस्यु कहलाता है। राम-रावण, कृष्ण-कंस तथा गांधी-गोडसे के बीच यही विभाजक रेखा थी। इसी प्रसंग में हमारी तो प्रतीति यह है कि व्यक्ति के नामार्थक गुण उसमें किसी न किसी रूप में अवश्य उत्पन्न हो जाते हैं। प्रो. प्रदीप के. शर्मा का नाम ऐसा ही है।
प्रो. प्रदीप के. शर्मा जी माँ भारती के कण्ठहार हैं। जनता के कौस्तुभ मणि हैं। भारत माँ के अनुपम रत्न हैं। इनका जीवन सन्त का जीवन है। निर्मोही, त्यागी, परोपकारी, विनम्र, सदाचारी, सद्भावक, शुद्ध अंतःकरण से निरभिमानी, निर्भयी, स्वाभिमानी है। वे हिन्दी भाषा के प्रेमी हैं। भाषा को ही भारत का गौरव मानते हैं। वे बाबू भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की इस पंक्ति से बहुत प्रभावित हैं-
‘निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिनु निज भाषा ग्यान के, मिटत न हिय के शूल।’’8
प्रो. प्रदीप के शर्मा राष्ट्रभाषा हिन्दी के उन्नायक हैं। राष्ट्रभाषा हिन्दी के उत्थान में उनका अग्रगण्य स्थान है। उनका श्रेष्ठतम त्याग एवं तपोमयी जीवन, सतत् निष्ठा, उत्कृष्ट साधना, सरल एवं सात्त्विक कार्य शैली, उच्च विचार, भारतीय संस्कृति के प्रति अटूट आस्था, दृढ़ प्रतिज्ञा, दूरदर्शिता, संवेदनशीलता, राष्ट्र एवं राष्ट्रभाषा, प्रेम, सहृदयता, सन्त स्वभाव, अपने सिद्धांतों और आदर्शों के प्रति दृढ़ता, संघर्षमय जीवन आदि अनुकरणीय एवं वंदनीय है। शर्मा जी राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार और अध्ययन-अध्यापन से सम्बद्ध नाना प्रकार के कार्यक्रम प्रस्तुत करते रहते हैं, वे हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित कर राष्ट्रभाषा के माध्यम से राष्ट्रीय संस्कृति के द्वारा सम्पूर्ण राष्ट्र को एक सूत्र में आबद्ध करना चाहते हैं।
‘‘हमारी राष्ट्रभाषा का असली स्रोत हमारी राष्ट्रीयता ही है, यह बात मैं जानता हूँ क्योंकि मैं इस काम में बहुत वर्षों से लगा हूँ कि हमारी आधुनिक राष्ट्रीयता के उत्थान में राष्ट्रभाषा की गहरी सक्षमता है। जिस भाषा को हमारी जनता समझ नहीं सकती उससे हमें राष्ट्रीयता की प्रेरणा कैसे मिलेगी।’’9  राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन जी के इन विचारों की छाप प्रो. प्रदीप के. शर्मा जी पर स्पष्ट रूप में दिखायी देती है।
प्रो. प्रदीप के. शर्मा जी, हिन्दी की व्याप्ति को विस्तृत करने में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं। संविधान सरकारी कामकाज, न्याय, व्यवसाय, शिक्षा, सामाजिक संस्थाओं और गैर-सरकारी कामों में हिन्दी को लाने का सर्वाधिक श्रेय आपका है। आपकी पुस्तक ‘कार्यालयी हिन्दी’सर्वाधिक लोकप्रिय है। वह प्रत्येक विद्यालयों, सरकारी कार्यालयों एवं महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों के लिए बहुत उपयोगी है। आप ने अपनी बात में लिखा भी है-‘‘कार्यालयी हिन्दी, प्रयोजनमूलक हिन्दी का ही एक उपभाग है। इसके लिए ऐसा भी कह सकते हैं-‘तेरे नाम अनेक पर तू ही है एक’।’’10
राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन जी के शब्दों में -‘‘कविता सृष्टि का सौन्दर्य है, कविता सृष्टि का सुख है, कविता ही सृष्टि का जीवन प्राण है; परमाणु में कविता है, विराट रूप में कविता है, बिन्दु में कविता है, सागर में कविता है, आकाश में कविता है, प्रकाश में कविता है, अन्धकार में कविता, सूर्य और चन्द्र में कविता, वायु और अग्नि में कविता, जल और थल में कविता, किरण और कौमुदी में कविता, मनुष्य में कविता, पशु में कविता, वृक्ष में कविता, पूरी प्रकृति में कविता है जिधर देखो कविता ही का साम्राज्य है। सारा ब्रह्माण्ड एक अद्भुत महाकाव्य है।’’11 इन विचारों का प्रभाव प्रो. प्रदीप के. शर्मा जी के व्यक्तित्व पर पड़ा। महाकवि पं. अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ जी अपने महाकाव्य ‘वैदेही वनवास’में लिखते हैं-
‘‘प्रकृति पाठ को पठन करो शुचि-चित्त से।
पत्ते-पत्ते में है प्रिय शिक्षा भरी।
सोचो-समझो मनन करो खोलो नयन
जीवन जल में ठीक चलेगी कृति तरी।।’’
जल को विमल बनाती है ये मछलियाँ,
पूत प्रेम का पाठ पढ़ाती हैं सदा।
प्रियतम जल से बिछुड़े वे जीती नहीं
किसी प्रेमिका पर क्यों आवे आपदा।।’’12
प्रो. प्रदीप के. शर्मा जी हमेशा कर्मशील ही रहते हैं। उनका चिन्तन है कि कर्म करते जाओ फल की इच्छा मत रखो। वह यही कहते हैं कि कर्म करके कर्म फल की आकांक्षा न करना, किसी मनुष्य की सहायता करके उससे किसी प्रकार की कृतज्ञता की आशा न रखना। कोई सत्कर्म करके भी इस बात की ओर नजर तक न देना कि वह हमें यश और कीर्ति देगा अथवा नहीं इस संसार में सबसे कठिन बात है। इन विचारों पर स्वामी विवेकानंद जी के इन विचारों का प्रभाव गहरा दिखाई देता है। स्वामी विवेकानंद जी लिखते हैं-‘‘गीता का केन्द्रीय भाव यह हैः निरन्तर कर्म करते रहो, परन्तु उसमें आसक्त मत होओ, संस्कार प्रायः मनुष्य की जन्मजात प्रवृत्ति होता है। यदि सब को तालाब मान लिया जाय तो उसमें उठने वाली लहर, प्रत्येक तरंग जब शान्त हो जाती है तो वास्तव में वह बिल्कुल नष्ट नहीं हो जाती।’’13
सारांश रूप में कहा जा सकता है कि बहुआयामी, पारगामी ऋतम्भरा प्रज्ञा के अनुयायी, कारयित्री एवं भावयित्री प्रतिभा के धनी सरस संत गुणग्राही प्रो. प्रदीप के. शर्मा जी का व्यक्तित्व असाधारण है। वे भारतीय संस्कृति के परम पोषक हैं, उन्होंने भारतीय संस्कृति के गहनता पक्ष पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने की प्रेरणा भारतीय आदर्शों में स्वामी विवेकानंद, रामकृष्ण परमहंस, महात्मा गांधी, राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त, पं. अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन, महामना पं. मदनमोहन मालवीय, राजेन्द्र प्रसाद व भारतीय आदर्श ग्रंथ ‘रामचरितमानस’ से मिली है। उनके व्यक्तित्व में उदारता, करुणा, विश्वकल्याण, सच्चरित्र, समानता, नैतिकता, परोपकारिता, ईमानदारी आदि विद्यमान हैं। इसी प्रकार से वे भारतीय संस्कृति के उन्नायक हैं।

संदर्भ
1.डॉ. कृपा किंजल्कम, बुन्देलखण्डी, सांस्कृतिक संदर्भ और 2.मैत्रेयी पुष्पा, बुन्देलखण्ड साहित्य संस्कृति, पृ. 100
3.मैथिलीशरण गुप्त, भारत-भारती, अतीत खंड, पृ. 9
4.सम्पा. सदानन्द साही, हरिऔध रचनावली, पृ. 151
5.वही, पद्य-प्रसून, पृ. 35
6.डॉ. मुकेश कुमार, खड़ी बोली हिन्दी के उन्नायकः महाकवि 7.हरिऔध, पृ. 94
8.डॉ. मुकेश कुमार, हिन्दी कविताः राष्ट्रीय चेतना एवं संस्कृति, सम्पादकीय 
9.वही, पृ. 315
10.आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ. 115
11.सम्पा. प्रभात शास्त्री, राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन व्यक्ति और संस्था, पृ. 356
 12. प्रो. प्रदीप के. शर्मा, कार्यालयी हिन्दी, पृ. 12
13. स्वामी विवेकानंद साहित्य, तृतीय खंड, पृ. 29-301
            ✍️लेखक    : डॉ. मुकेश कुमार
                   ग्राम-हथलाना, पोस्ट-मंजूरा
                   जिला-करनाल, हरियाणा