Monday 14 September 2020

अप्रतिम जीवनी-शक्तिवाली और संघर्षशील भाषा : हिन्दी

अप्रतिम जीवनी-शक्तिवाली और संघर्षशील भाषा  :  हिन्दी

जब कोई राष्ट्र अपने गौरव में वृद्धि करता है तो वैश्विक दृष्टि से उसकी प्रत्येक विरासत महत्त्वपूर्ण हो जाती है। परम्पराएँ, नागरिक दृष्टिकोण और भावी संभावनाओं के केन्द्र में ‘भाषा’ महत्त्वपूर्ण कारक बनकर उभरती है, क्योंकि अंततः यही संवाद का माध्यम भी है। भाषा अभिव्यक्ति का साधन होती है। भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम होती है। हमारी भावनाओं को जब शब्द-देह मिलता है, तो हमारी भावनाएं चिरंजीव बन जाती है।  इसलिए भाषा उस शब्द-देह का आधार होती है। भारतेंदु हरिश्चन्द्र जी का कथन दृष्टव्य है :-

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।
विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार।
सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार।।

हिन्दी भारोपीय परिवार की प्रमुख भाषा है। यह विश्व की लगभग तीन हजार भाषाओं में अपनी वैज्ञानिक विशिष्टता रखती है। मान्यता है कि हिंदी शब्द का सम्बन्ध संस्कृत के 'सिंधु' शब्द से माना जाता है। सिंधु का तात्पर्य  'सिंधु' नदी से है। यही 'सिंधु' शब्द ईरान में जाकर 'हिन्दू' , 'हिंदी' और फिर 'हिन्द' हो गया और इस तरह इस भाषा को अपना एक नाम 'हिन्दी' मिल गया । हिन्दी के विकास के अनेक चरण रहे हैं और प्रत्येक चरण में इसका स्वरूप विकसित हुआ है। वैदिक संस्कृत, संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश और उसके पश्चात् विकसित उपभाषाओं और बोलियों के समुच्चय से हिन्दी का अद्यतन रूप प्रकट हुआ है, जो अद्भुत है।
        पूरे विश्व को एक सूत्र में पिरो कर रखने वाली हम सब की भाषा 'हिन्दी' सम्पूर्ण भारत की जन भाषा, राष्ट्रभाषा और राजभाषा है। हिन्दी हमारी शान है, हिन्दी हमारा गौरव है । यह जन-जन की आशा और आकांक्षाओं का मूर्त्त रूप है और हमारी पहचान है । जब भी बात देश की उठती है तो हम सब एक ही बात दोहराते हैं, “हिंदी हैं हम, वतन है हिंदोस्तां हमारा“। यह पंक्ति हम हिंदुस्तानियों के लिए अपने आप में एक विशेष महत्व रखती है। हिंदी अपने देश हिंदुस्तान की पहचान है।

हिंदी केवल एक भाषा ही नहीं हमारी मातृभाषा है। यह केवल भावों की अभिव्यक्ति मात्र न होकर हृदय स्थित सम्पूर्ण राष्ट्रभावों की अभिव्यक्ति है। हिंदी हमारे अस्मिता का परिचायक , संवाहक और रक्षक है। सही अर्थो में कहा जाए तो विविधता वाले भारत अपने को हिंदी भाषा के माध्यम से एकता के सूत्र में पिरोये हुए है। भारत विविधताओं का देश है। यहां पर अलग-अलग पंथ, जाति और लिंग के लोग रहते हैं, जिनके खान-पान, रहन-सहन,भेष-भूषा एवं बोली आदि में बहुत अंतर है।  लेकिन फिर भी अधिकतर लोगों द्वारा देश में हिन्दी भाषा की बोली जाती है।  हिन्दी भाषा हम सभी हिन्दुस्तानियों को एक-दूसरे से जोड़ने का काम करती है। वास्तव में,हिन्दी हमारे देश की राष्ट्रीय एकता, अखंडता एवं समन्वयता का भी प्रतीक है।

     हिन्दी की लिपि-देवनागरी की वैज्ञानिकता सर्वमान्य है। लिपि की संरचना अनेक मानक स्तरों से परिष्कृत हुई है। यह उच्चारण पर आधारित है, जो उच्चारण-अवयवों के वैज्ञानिक क्रम- कंठ, तालु, मूर्धा, दंत, ओष्ठ आदि से निःसृत हैं। प्रत्येक ध्वनि का उच्चारण स्थल निर्धारित है और लेखन में विभ्रम की आशंकाओं से विमुक्त है। अनुच्चरित वर्णों का अभाव, द्विध्वनियों का प्रयोग, वर्णों की बनावट में जटिलता आदि कमियों से बहुत दूर है। पिछले कई दशकों से देवनागरी लिपि को आधुनिक ढंग से मानक रूप में स्थिर किया है, जिससे कम्प्यूटर, मोबाइल आदि यंत्रों पर सहज रूप से प्रयुक्त होने लगी है। स्वर-व्यंजन एवं वर्णमाला का वैज्ञानिक स्वरूप के अतिरिक्त केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय द्वारा हिन्दी वर्तनी का मानकीकरण भी किया गया, जो इसकी वैश्विक ग्राह्यता के लिए महत्त्वपूर्ण कदम है। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी की पंक्तियां दृष्टव्य है:-

है भव्य भारत ही हमारी मातृभूमि हरी-भरी ।
हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा और लिपि है नागरी ।।
                   
हिन्दी में साहित्य-सृजन परम्परा एक हजार वर्ष से भी पूर्व की है। आठवीं शताब्दी से निरन्तर हिन्दी भाषा गतिमान है। पृथ्वीराज रासो, पद्मावत, रामचरितमानस, कामायनी जैसे महाकाव्य अन्य भाषाओं में नहीं हैं। संस्कृत के बाद सर्वाधिक काव्य हिन्दी में ही रचा गया। हिन्दी का विपुल साहित्य भारत के अधिकांश भू-भाग पर अनेक बोलियों में विद्यमान है, लोक-साहित्य व धार्मिक साहित्य की अलग संपदा है और सबसे महत्त्वपूर्ण यह महान् सनातन संस्कृति की संवाहक भाषा है, जिससे दुनिया सदैव चमत्कृत रही है। उन्नीसवीं शती के पश्चात् आधुनिक गद्य विधाओं में रचित साहित्य दुनिया की किसी भी समृद्ध भाषा के समकक्ष माना जा सकता है। साथ ही दिनों-दिन हिन्दी का फलक विस्तारित हो रहा है, जो इसकी महत्ता को प्रमाणित करता है।

हिन्दी और विश्व भाषा के प्रतिमानों का यदि परीक्षण करें तो न्यूनाधिक मात्रा में यह भाषा न केवल खरी उतरती है, बल्कि स्वर्णिम भविष्य की संभावनाएँ भी प्रकट करती है। आज हिन्दी का प्रयोग विश्व के सभी महाद्वीपों में प्रयोग हो रहा है। आज भारतीय नागरिक दुनिया के अधिकांश देशों में निवास कर रहे हैं और हिन्दी का व्यापक स्तर पर प्रयोग भी करते हैं, अतः यह माना जा सकता है कि अंग्रेजी के पश्चात् हिन्दी अधिकांश भू-भाग पर बोली अथवा समझी जाने वाली भाषा है।                
भारतवर्ष के ललाट की बिन्दी, अर्थात "हिन्दी भाषा" को आज़ के ही दिन 14 सितम्बर 1949 को अनुच्छेद, 343(1) के तहत संविधान सभा के सामूहिक मत द्वारा राजभाषा के रूप मेंं अपनाया गया है। वर्धा समिति के सिफ़ारिश पर 1953 से प्रतिवर्ष 14 सितम्बर की तिथि को उत्सवपूर्वक "हिन्दी दिवस" के रूप मेंं मनाया जाता है। वर्तमान में हिन्दी को संविधान के द्वारा राजभाषा का पद मिला हुआ है, इस हेतु संवैधानिक प्रावधानों व विभिन्न आयोगों की सिफारिशों को क्रियान्विति का प्रयत्न हुआ है, किन्तु राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी अभी तक समुचित अधिकार प्राप्त नहीं कर पाई है, जो विचारणीय है। उन कारकों का अध्ययन किया जाना चाहिए, जो कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा पद पर अधिष्ठित कर सके। हिन्दी को राष्ट्रभाषा के गौरव से विभूषित करने हेतु हमें  एकजुट होना होगा । आइए, हम हिन्दी के प्रसार के लिए कृतसंकल्प होकर एक स्वर से कहें कि "हिन्दी हमारे माथे की बिन्दी है"। हमें यह प्रण भी लेना होगा कि हम हिन्दी को अपने उस शीर्षस्थ  स्थान पर प्रतिष्ठित कर दें कि हमें हिन्दी-दिवस मनाने जैसे उपक्रम न करने पड़ें और हिन्दी स्वतःस्फूर्त भाव से मूर्द्धाभिषिक्त हो ।

हिन्दी अप्रतिम जीवनी-शक्तिवाली और संघर्षशील भाषा के रूप में उभरती हुई अपना मुक़ाम तय कर रही है । हमें अपनी भाषा से प्रेम और आत्मीयता विकसित करते हुए इसके सही उपयोग के प्रति सचेष्ट रहना चाहिये । यदि हमारी प्रतिबद्धता निरंतर सजग और उत्साही बनी रही तो वह दिन दूर नहीं, जब हमारी भाषा 'हिन्दी' विश्व में सिरमौर होगी ।

     इस गौरवमयी 'हिन्दी दिवस' पर समस्त साहित्यसाधक, सुधी मनीषियों, लब्धप्रतिष्ठ-महानुभावों, शिक्षा व साहित्य की शृंखला से जुड़े हर एक व्यक्तित्व को अक्षररूपी पुष्पांजलि से कोटिशः शुभकामनाएं..!!!

                   ✍️ - डॉ. सुरेन्द्र शर्मा
                   शिमला (हिमाचल प्रदेश)

Friday 11 September 2020

हिन्दी भाषा एवं साहित्य


हिन्दी भाषा एवं साहित्य के विकास में हिन्दुस्तानी एकेडेमी का योगदान
                                          -डॉ. मुकेश कुमार

हिन्दी दरबार की भाषा कभी नहीं थी। वह सन्तों और सामान्य लोगों की भाषा थी। मध्यकाल में पंजाब से लेकर केरल तथा बंगाल से लेकर गुजरात तक भक्ति की जो लहर आई उसके साथ हिन्दी का सहज ही विकास हो गया।
हिन्दुस्तानी एकेडेमी उत्तर प्रदेश की प्राचीनतम् संस्थाओं में से महत्त्वपूर्ण संस्था है। हिन्दी भाषा और साहित्य के विकास में उसका सर्वोच्च स्थान है। वह संस्था हिन्दी, उर्दू तथा लोक भाषाओं के संवर्धन एवं विकास के लिए निरन्तर प्रयत्नशील है। हिन्दुस्तानी एकेडेमी की स्थापना 29 मार्च सन् 1927 ई. में हुई। इसका मुख्यालय प्रयागराज में विराजमान है। हिन्दी व उसकी सहयोगी भाषाओं को समृद्ध व लोकप्रिय बनाने में एकेडेमी का योगदान महत्त्वपूर्ण है।
‘‘हिन्दुस्तानी एकेडेमी का उद्देश्य प्रारम्भ से लेकर सन् 1957 तक हिन्दी और उर्दू साहित्य की रक्षावृद्धि रहा, साथ ही भिन्न-भिन्न विषयों की उच्चकोटि की पुस्तकों पर पुरस्कार तथा दूसरी भाषाओं की पुस्तकों का अनुवाद कर प्रकाशित करना रहा है किन्तु आजादी के बाद इसमें परिस्थितिवश युगान्तकारी परिवर्तन हुए और जनतान्त्रिक शासन और जनता, दोनों ओर से भाषा और साहित्य के सम्बन्ध में नीति-परिवर्तन का विचार उठने लगा।’’1
एकेडेमी का ज्ञापन-पत्रः एकेडेमी का ज्ञापन-पत्र निकाला गया जिसमें संस्था का नाम हिन्दुस्तानी एकेडेमी होगा। इस संस्था का उद्देश्य होगा कि वह निम्नलिखित तरीके से उर्दू और हिन्दी साहित्य का संवर्धन करे-
(क) विभिन्न विषयों की अनुमोदित पुस्तकों को पुरस्कृत करके।
(ख) अन्य भाषाओं की पुस्तकों का मानदेय देकर अथवा अन्य तरीके से, उर्दू तथा हिन्दी में अनुवाद करके तथा उन्हें प्रकाशित करके।
(ग) विश्वविद्यालयों तथा साहित्यिक संस्थाओं को अनुदान देकर अथवा अन्य तरीके से हिन्दी और उर्दू की मौलिक एवं अनुदित कृतियों को प्रोत्साहन देकर।
(घ) प्रतिष्ठित साहित्यकारों एवं विद्वानों को एकेडेमी का अधिसदस्य (फेलो) नियुक्त करके।
(ङ) सम्मानित अध्येताओं को एकेडेमी का सहत्तर नियुक्त करके।
(च) पुस्तकालय की स्थापना करके एवं उसका अनुरक्षण करके।
(छ) प्रतिष्ठित विद्वानों को व्याख्यान हेतु आमन्त्रित करके।
(ज) उपरोक्त उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए अन्य उपयोगी उपायों को लागू करके।’’2
एकेडेमी की नियमावलीः हिन्दुस्तानी एकेडेमी की स्थापना के बाद संकल्प-पत्र में संशोधन द्वारा 1933-34 ई. में इसकी नियमावली को सम्मिलित किया गया था। हिन्दुस्तानी एकेडेमी की नियमावली निम्न प्रकार से है-
मुख्यालयः हिन्दुस्तानी एकेडेमी का मुख्यालय इलाहाबाद (प्रयागराज) में स्थित होगा। जिसमें परिषद् के कुल सदस्यों के तीन चैथाई बहुमत से राज्य सरकार इसका मुख्यालय प्रान्त के किसी अन्य स्थान पर स्थापित कर सकती है।
गठनः हिन्दुस्तानी एकेडेमी का गठन निम्न प्रकार से है-
परिषद एवं कार्य समिति तथा समय-समय पर परिषद् द्वारा नियुक्त अधिसदस्यों से होगा।
परिषद् के अधिकार एवं गठनः परिषद् नीति सम्बन्धी समस्त सामान्य प्रश्नों का एकेडेमी के उद्देश्यों के अनुकूल समाधान करेगी। परिषद् के गठन में निम्न प्रकार के सदस्य सम्मिलित होंगे जिसमें अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, सात पदेन सदस्य, महासचिव, सरकार द्वारा नामित कार्य समिति के सदस्य, सरकार द्वारा नामित तीस सदस्य, परिषद् द्वारा नियुक्त अतिरिक्त सदस्य।
1957 में संशोधित ज्ञापन-पत्र  सन् 1957 में संशोधित ज्ञापन-पत्र इस प्रकार से है-
(1) संस्था का नाम हिन्दुस्तानी एकेडेमी होगा।
(2) हिन्दुस्तानी एकेडेमी के निम्नलिखित उद्देश्य होंगे-
(क) राजभाषा हिन्दी, उसके साहित्य तथा ऐसे अन्य रूपों और शैलियों जैसे उर्दू, ब्रजभाषा, अवधी, भोजपुरी आदि का परिरक्षण, संवर्धन और विकास, जिनकी उन्नति से हिन्दी समृद्ध हो सकती है।
(ख) मौलिक हिन्दी कृतियों, विशेषतया सृजनात्मक साहित्य का प्रोत्साहन एवं प्रकाशन।
(ग) हिन्दी भारतीय भाषाओं तथा विदेशी भाषाओं की साहित्यिक कृतियों, मुख्यतया काव्य, नाटक, कथा एवं ललित साहित्य का हिन्दी में अनुवाद कराना।
(घ) प्राचीन एवं मध्ययुगीन हिन्दी साहित्य को वैज्ञानिक रूप से सम्पादित पाठों का प्रकाशन।
वर्ष 2007 में नियमावली का भी संशोधन किया गया।
एकेडेमी का भवनः हिन्दुस्तानी एकेडेमी का भवन बहुत ही सौम्य है। हवादार कमरे व प्रकृति से ओत-प्रोत प्रांगण है। 
‘एकेडेमी का वर्तमान भवनः इसकी स्थापना 1927 ई. के 36 साल बाद नसीब हुआ। वर्तमान भवन के लिए उत्तर प्रदेश सरकार (उद्यान-विभाग) ने कम्पनी बाग के परिसर में एक जमीन 99 वर्षों के लिए लीज पर प्रदान की। यह आदेश दिनांक 21.11.1962 को गजट किया गया था। इस तिथि से 10 अप्रैल 2062 तक लीज की अवधि रहेगी। जिसे पुनः सरकारी आदेश से आगे बढ़ाया जा सकता है। यह लीज एक रुपये वार्षिक रूप से जमा किये जाने की शर्त पर है। इस वर्तमान भवन का शिलान्यास 8 जून 1963 ई. को पूर्व मुख्यमंत्री बाबू सम्पूर्णानंदजी ने किया था। भारत सरकार की अनुदानित सहायता तथा एकेडेमी की संचिता निधि की बची हुई धनराशि से यह वर्तमान भवन बनाकर तैयार हुआ। इस भवन का नाम हिन्दी भाषा के अनन्य प्रचारक राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन के नाम पर रखा गया। इस भवन के निर्माण में एकेडेमी के अध्यक्ष ‘चिन्तामणि घोष’, बालकृष्ण राव, इसके सचिव एवं कोषाध्यक्ष प्रसिद्ध पत्रकार विद्या भास्कर तथा इलाहाबाद विश्वविद्यालय के तत्कालीन हिन्दी विभाग के अध्यक्ष डॉ. उमाशंकर शुक्ल का भी विशेष सहयोग रहा है। यह भवन 1968 ई. में बनकर तैयार हुआ और अब से एकेडेमी का कार्यालय यहीं स्थित है।’’3
 

हिन्दुस्तानी एकेडेमी का पुस्तकालयः हिन्दुस्तानी एकेडेमी का पुस्तकालय अति समृद्ध है। इसमें लगभग 26000 महत्त्वपूर्ण पुस्तकें हैं। हिन्दी साहित्य में उच्च स्तरीय शोध के लिए यह पुस्तकालय अत्यन्त उपयुक्त है। हिन्दी भाषा के ऐसे भी सेवक हुए जिन्होंने अपनी निजी पुस्तकों को पुस्तकालय को देकर इसे समृद्ध किया है। ऐसे विद्वानों में डॉ. धीरेन्द्र वर्मा, बालकृष्ण राव तथा डॉ. बाबूराम सक्सेना का आरम्भिक योगदान अत्यन्त महत्त्व रखता है। इस दिशा में डॉ. राजेन्द्र कुमार वर्मा, डॉ. माता प्रसाद गुप्त के पुत्र डॉ. सालिगराम गुप्त, संगमलाल पाण्डेय, हरिमोहन मालवीय, डॉ. मीरा श्रीवास्तव, डॉ. जगदीश गुप्त आदि के नाम भी विशेष आदर के साथ याद किये जाते हैं। डॉ. राजेन्द्र कुमार वर्मा ने सन् 1966 में 120 पुस्तकें तथा 2000 ई. में 700 पुस्तकें प्रदान की। डॉ. सालिगराम गुप्त ने अपने पिता डॉ. माता प्रसाद गुप्त के संकलन से 300 महत्त्वपूर्ण पुस्तकें एकेडेमी पुस्तकालय को भेंट दी। हिन्दुस्तानी एकेडेमी के अध्यक्ष के रूप में हरिमोहन मालवीय ने एकेडेमी पुस्तकालय को बहुत समृद्ध किया। उनके प्रयास से सांसद चुन्नीलाल ने सांसद निधि से दो लाख रुपये की 28 आलमारियाँ तथा 30 रैक एकेडेमी पुस्तकालय को उपलब्ध कराए। जिस समय एकेडेमी की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी, उस समय इन महानुभावों के अनुराग का ही परिणाम है आज यह पुस्तकालय हिन्दी साहित्य में शोध एवं अनुसन्धान की दृष्टि से बहुत उपयोगी है। इस पुस्तकालय में हिन्दी जगत् की सभी महत्त्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाएँ उपलब्ध हैं। जिसमें सरस्वती, चाँद, हंस, माधुरी जैसी पुरानी पत्रिकाओं के अंकों का संग्रह इस एकेडेमी की धरोहर है।’’4
 

हिन्दुस्तानी शोध-पत्रिकाः हिन्दुस्तानी एकेडेमी की शोध त्रैमासिक पत्रिका ‘हिन्दुस्तानी  राष्ट्रीय स्तर की महत्त्वपूर्ण पत्रिका है। इस पत्रिका का प्रकाशन 1931 ई. में आरम्भ हुआ। इसके प्रथम सम्पादक श्री रामचन्द्र टण्डन थे। यह पत्रिका 1931 से 1948 ई. तक हिन्दी तथा उर्दू दोनों भाषाओं एवं उसकी लिपियों में निकलती रही। आर्थिक कारणों से 1948 ई. में इसे बन्द कर दिया। फिर 1958 ई. में इसे पुनः केवल ‘हिन्दी भाषा’में शुरू किया गया। तब से आज तक ‘हिन्दुस्तानी’ त्रैमासिक शोध पत्रिका निरन्तर प्रकाशित हो रही है। जब इसका पहला अंक 1931 ई. में प्रकाशित हुआ उसके सम्पादकीय विभाग में संपादक मण्डल के रूप में डॉ. ताराचन्द, डॉ. बेनी प्रसाद, डॉ. राम प्रसाद त्रिपाठी, डॉ. धीरेन्द्र वर्मा जैसे विद्वान सम्मिलित थे। इसके प्रथम सम्पादक जो एकेडेमी के सहायक सचिव थे। जब 1958 ई. में एक लम्बे अन्तराल के बाद ‘हिन्दुस्तानी’ त्रैमासिक शोध पत्रिका का पुनर्प्रकाशन शुरू हुआ तो इसके सम्पादक डॉ. माता प्रसाद गुप्त जी बने। और इनके बाद डॉ. हरदेव बाहरी, डॉ. ब्रजेश्वर वर्मा, डॉ. रामकुमार वर्मा, डॉ. जगदीश गुप्त, डॉ. रामकमल राय जैसे विद्वानों द्वारा अदा किया गया। वर्तमान समय में ‘हिन्दुस्तानी’ पत्रिका के सम्पादक रविनन्दन सिंह जी रहे जिन्होंने पत्रिका संपादन का कार्य पूरी ईमानदारी के साथ किया। अब इस पत्रिका के संपादक डॉ. उदय प्रताप सिंह, प्रबंध संपादक, अजय कुमार व पायल सिंह और ‘सहायक सम्पादक’ ज्योतिर्मयी जी हैं। ‘हिन्दुस्तानी’ त्रैमासिक शोध पत्रिका के कुछ अंक महत्त्वपूर्ण साहित्यकारों पर विशेषांक निकले हैं। जो इस प्रकार से हैं-सियारामशरण गुप्त विशेषांक, अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ विशेषांक, महादेवी वर्मा विशेषांक, डॉ. रामकुमार वर्मा विशेषांक, इस्मत चुग़ताई विशेषांक, मुक्तिबोध विशेषांक, शिव प्रसाद सिंह विशेषांक। कुछ विशेषांक भाषा पर भी निकले जिसमें अवधी, बुन्देली भाषा संयुक्तांक ब्रज भाषा विशेषांक आदि। हमारे भारतीय पर्व पर वर्ष 2019 में प्रयाग में कुंभ का मेला लगा था जिसमें एकेडेमी ने ‘कुंभ विशेषांक’ निकाला। जो बहुत ही महत्त्वपूर्ण रहा।

परिषद् एवं कार्य समितिः हिन्दुस्तानी एकेडेमी की परिषद् एवं कार्य समिति के सदस्य शासन द्वारा नामित किए गये। जिसमें हिन्दी जगत के प्रायः सर्वोच्च साहित्यकार एकेडेमी की परिषद् अथवा कार्य समिति में किसी न किसी से जुड़े रहे। जिसमें अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, मुन्शी प्रेमचन्द, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल आदि। इन्हीं महान साहित्यकारों के कारण यह हिन्दुस्तानी एकेडेमी प्रफुल्लित हुई और वर्तमान में भी हिन्दी सेवा में लीन है।
परिषद्ः 1927-1930 इसमें पं. अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, मुन्शी प्रेमचन्द (उर्दू-बाबू धनपतराय बी.ए.), श्रीधर पाठक, बाबू जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’ आदि।
सत्र-1930-1933 : ठाकुर गोपाल शरण सिंह, डॉ. धीरेन्द्र वर्मा
सत्र-1933-1936: आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, पं. सद्गुरु शरण अवस्थी
सत्र-1936-1939 : पं. रामनारायण मिश्र, जयशंकर प्रसाद, रायबहादुर सुखदेव बिहारी मिश्र।
सत्र-1943-1946 : महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पंत, रामकुमार वर्मा, वासुदेवशरण अग्रवाल, पं. केशव प्रसाद मिश्र।
सत्र-1952-1956 : सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन, सम्पूर्णानन्द, माता प्रसाद गुप्त, वृंदावनलाल वर्मा आदि।
सत्र-1968-1972 : बालमुकुंद गुप्त, विद्यानिवास मिश्र, लक्ष्मीसागर वाष्र्णेय, विजेन्द्र स्नातक।
सत्र-1972-1974 : रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’, भगवतीचरण वर्मा, रामविलास शर्मा आदि।
सत्र-1975-1977 : हजारी प्रसाद द्विवेदी, अमृतलाल नागर, रामस्वरूप चतुर्वेदी, श्रीलाल शुक्ल, गोपाल सिंह नेपाली।
सत्र-1981-1984 : रामकुमार वर्मा, जगदीश गुप्त, रामचन्द्र मिश्र, प्रभात शास्त्री, नामवर सिंह आदि।
सत्र-1984-1987 : महादेवी वर्मा, रामकुमार वर्मा, कपिलदेव द्विवेदी।
सत्र-1987-1990 : जगदीश गुप्त, शिवमंगल सिंह ‘सुमन’, राममूर्ति त्रिपाठी, राजलक्ष्मी वर्मा, रामचन्द्र तिवारी आदि।
सत्र-1991-1993 : शिव प्रसाद सिंह, किशोरी लाल गुप्त आदि।
सत्र-1995-1997 : लक्ष्मीकांत वर्मा, सत्यप्रकाश मिश्र आदि।
सत्र-1997-2000 : विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, कुंवर बेचैन आदि।
सत्र-2001-2005 : हरिमोहन मालवीय, कमल किशोर गोयनका, शिवमूर्ति सिंह आदि।
सत्र-2005-2008 : योगेन्द्र प्रताप सिंह, राजेन्द्र कुमार आदि।
सत्र-2009-2010 : राम केवल (सचिव), सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी (कोषाध्यक्ष) प्रमुख सचिव, भाषा एकेडेमी के पदेन अध्यक्ष रहे तथा परिषद् गठन नहीं हुआ।
सत्र-2010-2011 : प्रदीप कुमार, इन्द्रजीत विश्वकर्मा।
सत्र-2011-2016 : सुनील जोगी, बृजेश चन्द्र, रविनन्दन सिंह।
सत्र-2016-2018 : सुनील जोगी, नरेन्द्र प्रताप सिंह, रविनन्दन सिंह।
सत्र-2018 से- उदय प्रताप सिंह (अध्यक्ष), रविन्द्र कुमार, विजय त्रिपाठी, आभा द्विवेदी आदि।’’5

हिन्दुस्तानी एकेडेमी के पुरस्कार : 
हिन्दुस्तानी एकेडेमी पुरस्कार 1928 ई. में एकेडेमी की स्थापना के एक वर्ष बाद शुरू हो गया था। इसकी धनराशि प्रत्येक साहित्यकार के लिए 500 रु. निर्धारित की गयी। सर्वप्रथम हिन्दी के दो साहित्यकारों को पुरस्कार दिया गया जिसमें मुन्शी प्रेमचन्द (‘रंगभूमि’ उपन्यास पर व बाबू जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’ (गंगावतरण रचना) पर दिया गया। इसके उपरांत बाबू गुलाब राय, रामनरेश त्रिपाठी, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल (हिन्दी साहित्य का इतिहास) 1930-1931 में, जैनेन्द्र कुमार (परख), मैथिलीशरण गुप्त (साकेत-1932-1933), भगवतीचरण वर्मा (भूले बिसरे चित्र (1969-70), कुंवर नारायण (आत्मजयी 1970-71), लक्ष्मीकांत वर्मा, समग्र साहित्य (1996-97), नामवर सिंह (समग्र साहित्य पर 1997-98) दिया गया। इस समय इस पुरस्कार की राशि 25,000 रु. थी। 22 वर्षों के पश्चात् हिन्दुस्तानी एकेडेमी ने पुनः वर्ष 2019 में पुरस्कार दी जाने की घोषणा की। इस समय वर्तमान अध्यक्ष डॉ. उदय प्रताप सिंह व उत्तर प्रदेश शासन के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी की अध्यक्षता में फैसला लिया गया। जिसमें पुरस्कार नियमावली अनुसार पुरस्कारों के नाम व राशि विवरण दिया गया जो इस प्रकार से है-
1. ‘गुरु गोरक्षनाथ शिखर सम्मान’-राशि 5,00000 - डॉ. अनुज प्रताप सिंह को मिला।
2. ‘तुलसी सम्मान’-2,50,000 - डॉ. सभापति मिश्र।
3. ‘भारतेन्दु हरिश्चन्द्र सम्मान’- 2,00,000 - डॉ. रामबोध पांडेय
4. ‘महावीर प्रसाद द्विवेदी सम्मान’-2,00,000 - प्रो. योगेन्द्र प्रताप सिंह
5. ‘महादेवी वर्मा सम्मान’-1,00,000 - डॉ. सरोज सिंह
6. ‘फ़िराक़ गोरखपुरी सम्मान’-1,00,000 - शैलेन्द्र मधुर
7. ‘बनादास अवधी सम्मान’-1,00,000 - आद्या प्रसाद सिंह
8. ‘भिखारी ठाकुर भोजपुरी सम्मान’-1,00,000 - बृजमोहन प्रसाद
9. ‘कुंभनदास ब्रज भाषा सम्मान’-1,00,000 - डॉ. ओंकारनाथ द्विवेदी
10. ‘ईसुरी बुन्देली सम्मान’-1,00,000
11. ‘हिन्दुस्तानी एकेडेमी युवा लेखन सम्मान’-11,000 विश्वभूषण आदि।
इस अवसर पर समस्त हिन्दुस्तानी एकेडेमी परिवार माननीय मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी आवास पर उपस्थित रहा। और कार्यक्रम का संचालन एकेडेमी के कोषाध्यक्ष रविनन्दन सिंह ने किया। वर्ष 2020 में हिन्दुस्तानी एकेडेमी द्वारा सर्वोच्च सम्मानों की घोषणा की गयी जिसमें ‘गुरु गोरक्षनाथ शिखर सम्मान’ डॉ. प्रदीप राव जी को मिलेगा और तुलसी सम्मान महान पांडुलिपियों के मर्मज्ञ विद्वान उदयशंकर दूबे जी को उनकी सबसे महत्त्वपूर्ण पुस्तक ‘रामचरितमानस की पांडुलिपियाँ ज्ञात-अज्ञात तथ्य’ पर मिलेगा। वास्तव में यह पुस्तक व इसका लेखक तुलसी सम्मान के हकदार हैं।
हिन्दुस्तानी एकेडेमी के अध्यक्षों की सूची इस प्रकार से है-
1. डॉ. सर तेज बहादुर सप्रू - 1927-1937
2. राय राजेश्वर रबली - 1938-1944
3. न्यायमूर्ति श्री कमलाकांत वर्मा - 1945-1962
4. चिन्तामणि बालकृष्ण राव - 1962-1972
5. न्यायमूर्ति सुरेन्द्रनाथ द्विवेदी - 1972-1974
6. डॉ. रामकुमार वर्मा - 1975-1990
7. डॉ. जगदीश गुप्त - 1991-1994
8. रामकमल राय - 1995-1997
9. हरिमोहन मालवीय - 1998-2005
10. कैलाश गौतम - 2005-2006
11. प्रो. योगेन्द्र प्रताप सिंह - 2007-2007
12. डॉ. सुनील जोगी - 2013-2017
13. डॉ. उदय प्रताप सिंह - 2018 से
साहित्यकारों के एकेडेमी में परिसंवाद : हिन्दुस्तानी एकेडेमी में हिन्दी-भाषा और साहित्य के विकास हेतु हिन्दी साहित्य के बड़े-बड़े साहित्यकार परिसंवाद करते थे। जिसमें अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, सुमित्रानंदन पंत, बाबू श्यामसुंदर दास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी, विद्यानिवास मिश्र, जगन्नाथदास रत्नाकर, रामधारी सिंह दिनकर, केशव प्रसाद मिश्र, जगदीश गुप्त, रामस्वरूप चतुर्वेदी, रामनिवास शर्मा, नामवर सिंह आदि। इन महत्त्वपूर्ण साहित्यकारों के जब चरण एकेडेमी के प्रांगण में पड़ते थे तो उस समय एकेडेमी में साहित्य की खुशबुू चारों तरफ़ फैल जाती थी। इसी प्रकार से सन् 1971 में डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी ने ‘रचना की प्रासंगिकता का निकष’ पर अपने विचार रखे उसके कुछ महत्त्वपूर्ण अंश इस प्रकार से है-‘‘जब रचना लिखी जाती है तब उस परिवेश में वह कितनी सार्थक होती है और समय के बढ़ते हुए विकास के साथ उसकी प्रासंगिकता क्या है, हमें इन दोनों बातों पर विचार करना चाहिए। दूसरे शब्दों में जब रचना लिखी जा रही है तब उसकी सार्थकता क्या है और युगों-युगों तक सार्थकता क्या रहती है इस पर हमें विचार करना है। प्रायः मूल्यांकन के समय हम इन दोनों बातों को पृथक्-पृथक् कर लेते हैं। रचना की प्रासंगिकता के अन्तर्गत हमें इन दोनों पक्षों पर ध्यान देना है- केवल एक पक्ष पर नहीं वरन् सम्पूर्ण स्थित पर।’’6
हिन्दी की प्रकृति, स्वरूप तथा विकास में डॉ. धीरेन्द्र वर्मा जी हिन्दुस्तानी एकेडेमी के परिसंवाद में कहते हैं-‘‘हिन्दी की प्रकृति या विश्लेषण सुंदर ढंग से किया गया है। जो अहिन्दी प्रदेश के लोग हैं, उन्हें हिन्दी की प्रकृति के सम्बन्ध में कुछ कठिनाई पड़ती है। वे इसे सीखने के लिए इसमें कुछ परिवर्तन चाहते हैं।’’7
डॉ. हरदेव बाहरी जी कहते हैं-‘‘मैं शब्दों को भाषा का कलेवर मानता हूँ। मैंने अपने लेख में, जो भाषा है, उसी का व्याकरण रखा है। आज जो बोलचाल की भाषा है, वह आगे चलकर हिन्दी होगी।’’8
वर्तमान युग में काव्यभाषा की समस्याएँ : इस विषय के परिसंवाद में विद्यानिवास मिश्र जी ने कहा है कि-‘‘संचार माध्यमों में छापाखाना एक पहला कदम था। इसकी शुरुआत चीन में बहुत पहले हो गयी थी। पश्चिम में तो बाद में हुई।’’9
महादेवी वर्मा जी ने अपने अन्त में अध्यक्षा पद से बोलते हुए कहा-‘‘काव्य भाषा का प्रश्न या समस्या किसी कवि की समस्या नहीं है। यह आलोचक की हो सकती है। जब कविता लिखी जाती है। उसके बाद ही आलोचक पैदा होता है। छायावादी कवियों को तो आलोचक ही नहीं मिले। कवि की समस्या अभिव्यक्ति की होती है।’’10
हिन्दी के विकास के साथ क्षेत्रीय भाषाओं में उच्च शिक्षा की व्यवस्था की जाये। इससे ज्ञान का जनता से सीधा सम्बन्ध होगा और देश की प्रगति होगी इस दिशा में देश की विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं ने महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। इसमें नागरी प्रचारिणी सभा, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, हिन्दुस्तानी एकेडेमी आदि प्रमुख हैं।
हिन्दुस्तानी एकेडेमी के द्वारा समय-समय पर हिन्दी भाषा और साहित्य के विकास में अधिवेशन होते रहे। वह समय-समय पर संगोष्ठियाँ, संवाद आदि होते रहे वह हो रहे हैं। जैसे मध्ययुगीन हिन्दी कविता में स्त्री-चेतना, वीर रस के मूर्धन्य कवि पं. श्यामनारायण पाण्डेय, मैथिलीशरण गुप्त और उनका युग बोध, भाषा चिंतन और भारतीय परम्परा, गोदान कल और आज, परिष्कृत गद्य के प्रवत्र्तक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, खड़ी बोली हिन्दी के विकास में प्रियप्रवास का योगदान, रामधारी सिंह दिनकर की राष्ट्रीय-सांस्कृतिक चेतना, सेवासदन के 100 वर्ष, कथाकार शिव प्रसाद सिंह, प्रसाद का काव्य चिन्तन।
हिन्दुस्तानी एकेडेमी द्वारा प्रकाशित महत्त्वपूर्ण ग्रंथ
‘नाथ सम्प्रदाय : विविध आयाम’, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, ‘प्रेमचन्द सृजन एवं चिन्तन’, ‘कबीर और कबीर के प्रतिबिम्ब’, ‘निराला : काव्य चेतना के अन्तद्र्वन्द्व’, ‘महाकवि सुमित्रानंदन पंत : सृजन एवं चिन्तन’, ‘रामविलास शर्मा और हिन्दी आलोचना’, ‘हिन्दी नाटक और रंगमंच’, ‘लोक साहित्य : अभिव्यक्ति और अनुशीलन’, ‘जायसी आलोचना के निकष पर’, ‘सूर काव्य : दृष्टि एवं विमर्श’, ‘तुलसी साहित्य : अभिव्यक्ति के विविध स्वर’ आदि महत्त्वपूर्ण ग्रंथों का प्रकाशन किया जिससे हिन्दी भाषा और साहित्य के संवर्धन में हिन्दुस्तानी एकेडेमी का अपना एक महत्त्वपूर्ण योगदान है।
सारांश रूप में कहा जाता है कि हिन्दुस्तानी एकेडेमी सन् 1927 ई. से हिन्दी भाषा एवं साहित्य के संवर्धन के सम्बन्ध में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। विभिन्न भाषाओं, क्षेत्रीय बोलियों पर विभिन्न प्रांतों में अधिवेशन करना, साहित्यकार को उत्कृष्ट रचना पर सम्मान देकर उसे प्रेरित करना, विभिन्न व्याख्यान मालाओं का आयोजन करना, संगोष्ठियों का आयोजन करना और उच्च शोध त्रैमासिक पत्रिका का प्रकाशन करना। उच्च स्तर का पुस्तकालय भवन जिसमें महत्त्वपूर्ण साहित्य उपलब्ध है। ताकि हिन्दी के शोधार्थियों को शोध के दौरान किसी भी प्रकार की कठिनाई का सामना न करना पड़े। इसी प्रकार से वर्तमान समय में भी एकेडेमी निरन्तर हिन्दी साहित्य की सेवा में प्रयासरत है।

 

संदर्भ
1. रविनन्दन सिंह-हिन्दुस्तानी एकेडेमी का इतिहास, पृ. आमुख।
2. वही, पृ. 26
3. वही, पृ. 46
4. वही, पृ. 47
5. वही, पृ. 49 से 89 तक।
6. संपा. रविनन्दन, हिन्दुस्तानी एकेडेमी के परिसंवाद, पृ. 22
7. वही, पृ. 91
8. वही, पृ. 93
9. वही, पृ. 147
10. वही, पृ. 206


✍️डॉ. मुकेश कुमार
ग्राम-हथलाना, पोस्ट-मंजूरा
जिला-करनाल, हरियाणा
मोबाइलः 9896004680

Monday 7 September 2020

भारतीय संस्कृति के उन्नायक : प्रो.प्रदीप के. शर्मा



भारतीय संस्कृति के उन्नायक :  प्रो. प्रदीप के. शर्मा  
                                                -डॉ. मुकेश कुमार
               साहित्यकार :  प्रो. प्रदीप के. शर्मा

भारत भूमि पवित्र भूमि है। भारत देश मेरा तीर्थ है। भारत में सर्वस्व है; भारत की पुण्यभूमि का अतीत गौरवमय है, यही वह भारतवर्ष है, जहाँ मानव प्रकृति एवं अन्तर्गत के रहस्यों की जिज्ञासाओं के अंकुर पनपे हैं।
किसी भी साहित्यिक या वैचारिक वातावरण सदैव उसके परिवेशगत पर्यावरण से रचनात्मक ऊर्जा ग्रहण करता है। परिवेशगत पर्यावरण का मूलाधार संस्कृति होती है। संस्कृति शब्द सम् उपसर्ग के साथ संस्कृति की (डु) कृ (त्र्) धातु से बनता है, जिसका मूल अर्थ साफ या परिष्कृत करना है। संस्कृति शब्द का प्रयोग दो अर्थों में होता है, व्यापक अर्थ में उक्त शब्द का अर्थ नर-विज्ञान में किया जाता है, जिसमें संस्कृति सामाजिक परम्परा से अर्जित व्यवहार है और संकीर्ण अर्थ में संस्कृति उन गुणों का समुदाय है जो व्यक्ति को परिष्कृत करते हैं।’’1

‘संस्कृति’ जीवन जीने की एक पद्धति का नाम है। संस्कृति और सभ्यता दो अलग-अलग शब्द हैं। सभ्यता वेशभूषा, रहन-सहन, खान-पान आदि पक्षों तक ही सीमित है जबकि संस्कृति चिन्तन से लेकर जीवन-व्यवहार एवं मानवीय संवेदना से लेकर समष्टिगत एकता जैसे पक्षों को स्पर्श करती है। सभ्यता वह है जो हमारे पास है, संस्कृति वह है जो हम स्वयं हैं।
प्रो. प्रदीप के. शर्मा जी का जन्म 1 अगस्त 1964 ई. को गोहाटी (असम) के अहिन्दी क्षेत्र में हुआ। उन्होंने हिन्दी-साहित्य के प्रति गहन प्रेम है और उनके पैतृक संस्कारों की छाप भी उनके व्यक्तित्व पर पड़ी। इसी परिणाम स्वरूप उनके जीवन-आदर्श स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी आदि का प्रभाव भी उनके व्यक्तित्व पर पड़ा जो हिन्दी सेवा का ध्वज अहिन्दी क्षेत्र में लहरा रहे हैं। यह भी एक भारतीय संस्कृति का मुख्य अंग ही नहीं आत्मा है। प्रदीप के. शर्मा जी राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी द्वारा लिखी गयी भारत-भारती रचना की इस पंक्ति से बहुत प्रभावित है-
मानस-भवन में आर्यजन जिसकी उतारे आरती-
भगवान! भारतवर्ष में गूँजे हमारी भारती।
हो भद्रभावोद्भाविनी वह भारती हे भगवते!
सीतापते! सीतापते!! गीतामते! गीतामते!’’ 2
प्रो. प्रदीप के शर्मा जी का जीवन सरल-सहज व परोपकारी है। उनकी एक ही सोच है-‘‘नेकी कर दरिया में बहा’’ वे सच्चे देशभक्त, हिन्दी-प्रेमी, लोक सेवक, भाषा प्रेमी, समाज में राष्ट्र प्रेम की शंखध्वनि का स्वर गुँजाने वाले हैं। उनके जीवन पर महाकवि ‘हरिऔध’ जी की इस पंक्ति का गहरा प्रभाव दिखाई देता है-
प्यारा है जितना स्वदेश,
उतना है प्राण प्यारा नहीं।
प्यारी है उतनी न कीर्ति,
जितनी उद्धार की कामना। 3
प्रो. प्रदीप के. शर्मा जी एक आदर्श गुरु हैं। वो हमेशा गुरु और शिष्य के पवित्र रिश्ते को महत्ता देते हैं। उनका मानना है कि समाज में ऐसे आचार्य (गुरु) की जरूरत है, जो व्यास जी के तुल्य हों, जो लोहे के समान बुरे व्यक्तियों को भी स्वर्ण में बदल दे। अर्थात् सबके जीवन में अच्छे संस्कार भर दें। हमें ऐसे आचार्य की जरूरत है जो समाज में माया के लोभ से अपनी प्रतिष्ठा को न खोयें। अपने कर्म और धर्म को पैसे के समान न समझें, उसकी तुलना पैसे से न करें। वही गुरु (आचार्य) समाज के लिए उपयोगी होगा। क्योंकि वह स्वयं भी ऐसे ही हैं। महाकवि हरिऔध की इन पंक्तियों का प्रभाव उनके जीवन पर व्यापक दिखाई देता है। वो जो कहते हैं वो करते भी हैं-
गुरु चाहिए हमें ठीक पारस के ऐसा।
जो लोहे को कसर मिटा सोना कर डाले।।
टके लिए धूल में न निज मान मिलावे।
लोभ लहर में मूल न सुरुचि सुरीति बहाले।।
हमें चाहिए सरल सुबोध पुरोहित ऐसा
जो घर-घर में सकल सुखों की सोत लगावे।।4
भारतीय संस्कृति बहुत व्यापक और विस्तृत है। भारतीय संस्कृति की गौरव-गाथा उज्ज्वल एवं महान है। सृष्टि की अन्य संस्कृतियों में भारतीय संस्कृति महानतम है। इसमें मानवतावाद और विश्व बन्धुत्व की भावना निहित है। यह विश्व बन्धुत्व एवं ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’की भावना से ओत-प्रोत है। प्रो. प्रदीप के. शर्मा जी के जीवन पर महाकवि गोस्वामी तुलसीदास जी की रामचरितमानस की इन पंक्तियों का प्रभाव दिखाई देता है-
‘‘प्रातः काल उठि कै रघुनाथ। मातु पिता गुरु नावाहि माथा
मातु-पिता अग्या अनुसरहीं।।’’5
‘‘प्रत्येक राष्ट्र की निजी संस्कृति होती है जो उसको एक सूत्र में पिरोये रखती है। रीति-रिवाज, साहित्य, शिक्षा, कला, रहन-सहन, जीवन-दर्शन एवं मान्यताओं का समाहार संस्कृति के अन्तर्गत हो जाता है। संस्कृति मानव जीवन वृक्ष का सुगन्धित पुष्प है।’’6
‘‘ संस्कृति विचार एवं ज्ञान दोनों व्यावहारिक एवं सैद्धांतिक का समूह है, जो केवल मनुष्यों के पास ही हो सकता है। संस्कृति उन तरीकों का कुल योग है जिनके द्वारा मनुष्य अपना जीवन व्यतीत करता है। जो सीखने की प्रक्रिया द्वारा एक से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होता है।’’7
मानव संस्कृति का इतिहास इस बात का साक्षी है कि किसी वस्तु अथवा क्रिया का मूल्यांकन लोकहितैषणा एवं लोक निर्माण के निषक पर होता रहा। वह व्यक्ति साधु मान लिया गया जिसने परहित के लिए अपने सारे सुखों और ऐश्वर्यों का उत्सर्ग कर दिया, वह वस्तु सुन्दर बन गयी जिसका उपयोग लोक-जीवन को निर्विघ्न बनाने में हो सका और वह क्रिया धन्य हो गयीं जिससे लोक हृदय में सद्वृत्तियों का उन्मेष हुआ। किसी व्यक्ति के लिए इस निकष पर खरा उतरना तभी सम्भव है जब वह ‘यथा चितं तथा वाचो यथा वाचस्तथा क्रिया को अपने जीवन में अंगीकार करे। अपनी जीवन सत्ता, अर्जित महत्ता तथा उपलब्ध ऐश्वर्यता को जो समष्टि पर लुटा दे, वही मनुष्य महात्मा अथवा ऋषि कहा जाता है, इसके विपरीत, जो समाज की विभूति को लूटताहै वह असाधु तथा दस्यु कहलाता है। राम-रावण, कृष्ण-कंस तथा गांधी-गोडसे के बीच यही विभाजक रेखा थी। इसी प्रसंग में हमारी तो प्रतीति यह है कि व्यक्ति के नामार्थक गुण उसमें किसी न किसी रूप में अवश्य उत्पन्न हो जाते हैं। प्रो. प्रदीप के. शर्मा का नाम ऐसा ही है।
प्रो. प्रदीप के. शर्मा जी माँ भारती के कण्ठहार हैं। जनता के कौस्तुभ मणि हैं। भारत माँ के अनुपम रत्न हैं। इनका जीवन सन्त का जीवन है। निर्मोही, त्यागी, परोपकारी, विनम्र, सदाचारी, सद्भावक, शुद्ध अंतःकरण से निरभिमानी, निर्भयी, स्वाभिमानी है। वे हिन्दी भाषा के प्रेमी हैं। भाषा को ही भारत का गौरव मानते हैं। वे बाबू भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की इस पंक्ति से बहुत प्रभावित हैं-
‘निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिनु निज भाषा ग्यान के, मिटत न हिय के शूल।’’8
प्रो. प्रदीप के शर्मा राष्ट्रभाषा हिन्दी के उन्नायक हैं। राष्ट्रभाषा हिन्दी के उत्थान में उनका अग्रगण्य स्थान है। उनका श्रेष्ठतम त्याग एवं तपोमयी जीवन, सतत् निष्ठा, उत्कृष्ट साधना, सरल एवं सात्त्विक कार्य शैली, उच्च विचार, भारतीय संस्कृति के प्रति अटूट आस्था, दृढ़ प्रतिज्ञा, दूरदर्शिता, संवेदनशीलता, राष्ट्र एवं राष्ट्रभाषा, प्रेम, सहृदयता, सन्त स्वभाव, अपने सिद्धांतों और आदर्शों के प्रति दृढ़ता, संघर्षमय जीवन आदि अनुकरणीय एवं वंदनीय है। शर्मा जी राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार और अध्ययन-अध्यापन से सम्बद्ध नाना प्रकार के कार्यक्रम प्रस्तुत करते रहते हैं, वे हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित कर राष्ट्रभाषा के माध्यम से राष्ट्रीय संस्कृति के द्वारा सम्पूर्ण राष्ट्र को एक सूत्र में आबद्ध करना चाहते हैं।
‘‘हमारी राष्ट्रभाषा का असली स्रोत हमारी राष्ट्रीयता ही है, यह बात मैं जानता हूँ क्योंकि मैं इस काम में बहुत वर्षों से लगा हूँ कि हमारी आधुनिक राष्ट्रीयता के उत्थान में राष्ट्रभाषा की गहरी सक्षमता है। जिस भाषा को हमारी जनता समझ नहीं सकती उससे हमें राष्ट्रीयता की प्रेरणा कैसे मिलेगी।’’9  राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन जी के इन विचारों की छाप प्रो. प्रदीप के. शर्मा जी पर स्पष्ट रूप में दिखायी देती है।
प्रो. प्रदीप के. शर्मा जी, हिन्दी की व्याप्ति को विस्तृत करने में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं। संविधान सरकारी कामकाज, न्याय, व्यवसाय, शिक्षा, सामाजिक संस्थाओं और गैर-सरकारी कामों में हिन्दी को लाने का सर्वाधिक श्रेय आपका है। आपकी पुस्तक ‘कार्यालयी हिन्दी’सर्वाधिक लोकप्रिय है। वह प्रत्येक विद्यालयों, सरकारी कार्यालयों एवं महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों के लिए बहुत उपयोगी है। आप ने अपनी बात में लिखा भी है-‘‘कार्यालयी हिन्दी, प्रयोजनमूलक हिन्दी का ही एक उपभाग है। इसके लिए ऐसा भी कह सकते हैं-‘तेरे नाम अनेक पर तू ही है एक’।’’10
राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन जी के शब्दों में -‘‘कविता सृष्टि का सौन्दर्य है, कविता सृष्टि का सुख है, कविता ही सृष्टि का जीवन प्राण है; परमाणु में कविता है, विराट रूप में कविता है, बिन्दु में कविता है, सागर में कविता है, आकाश में कविता है, प्रकाश में कविता है, अन्धकार में कविता, सूर्य और चन्द्र में कविता, वायु और अग्नि में कविता, जल और थल में कविता, किरण और कौमुदी में कविता, मनुष्य में कविता, पशु में कविता, वृक्ष में कविता, पूरी प्रकृति में कविता है जिधर देखो कविता ही का साम्राज्य है। सारा ब्रह्माण्ड एक अद्भुत महाकाव्य है।’’11 इन विचारों का प्रभाव प्रो. प्रदीप के. शर्मा जी के व्यक्तित्व पर पड़ा। महाकवि पं. अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ जी अपने महाकाव्य ‘वैदेही वनवास’में लिखते हैं-
‘‘प्रकृति पाठ को पठन करो शुचि-चित्त से।
पत्ते-पत्ते में है प्रिय शिक्षा भरी।
सोचो-समझो मनन करो खोलो नयन
जीवन जल में ठीक चलेगी कृति तरी।।’’
जल को विमल बनाती है ये मछलियाँ,
पूत प्रेम का पाठ पढ़ाती हैं सदा।
प्रियतम जल से बिछुड़े वे जीती नहीं
किसी प्रेमिका पर क्यों आवे आपदा।।’’12
प्रो. प्रदीप के. शर्मा जी हमेशा कर्मशील ही रहते हैं। उनका चिन्तन है कि कर्म करते जाओ फल की इच्छा मत रखो। वह यही कहते हैं कि कर्म करके कर्म फल की आकांक्षा न करना, किसी मनुष्य की सहायता करके उससे किसी प्रकार की कृतज्ञता की आशा न रखना। कोई सत्कर्म करके भी इस बात की ओर नजर तक न देना कि वह हमें यश और कीर्ति देगा अथवा नहीं इस संसार में सबसे कठिन बात है। इन विचारों पर स्वामी विवेकानंद जी के इन विचारों का प्रभाव गहरा दिखाई देता है। स्वामी विवेकानंद जी लिखते हैं-‘‘गीता का केन्द्रीय भाव यह हैः निरन्तर कर्म करते रहो, परन्तु उसमें आसक्त मत होओ, संस्कार प्रायः मनुष्य की जन्मजात प्रवृत्ति होता है। यदि सब को तालाब मान लिया जाय तो उसमें उठने वाली लहर, प्रत्येक तरंग जब शान्त हो जाती है तो वास्तव में वह बिल्कुल नष्ट नहीं हो जाती।’’13
सारांश रूप में कहा जा सकता है कि बहुआयामी, पारगामी ऋतम्भरा प्रज्ञा के अनुयायी, कारयित्री एवं भावयित्री प्रतिभा के धनी सरस संत गुणग्राही प्रो. प्रदीप के. शर्मा जी का व्यक्तित्व असाधारण है। वे भारतीय संस्कृति के परम पोषक हैं, उन्होंने भारतीय संस्कृति के गहनता पक्ष पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने की प्रेरणा भारतीय आदर्शों में स्वामी विवेकानंद, रामकृष्ण परमहंस, महात्मा गांधी, राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त, पं. अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन, महामना पं. मदनमोहन मालवीय, राजेन्द्र प्रसाद व भारतीय आदर्श ग्रंथ ‘रामचरितमानस’ से मिली है। उनके व्यक्तित्व में उदारता, करुणा, विश्वकल्याण, सच्चरित्र, समानता, नैतिकता, परोपकारिता, ईमानदारी आदि विद्यमान हैं। इसी प्रकार से वे भारतीय संस्कृति के उन्नायक हैं।

संदर्भ
1.डॉ. कृपा किंजल्कम, बुन्देलखण्डी, सांस्कृतिक संदर्भ और 2.मैत्रेयी पुष्पा, बुन्देलखण्ड साहित्य संस्कृति, पृ. 100
3.मैथिलीशरण गुप्त, भारत-भारती, अतीत खंड, पृ. 9
4.सम्पा. सदानन्द साही, हरिऔध रचनावली, पृ. 151
5.वही, पद्य-प्रसून, पृ. 35
6.डॉ. मुकेश कुमार, खड़ी बोली हिन्दी के उन्नायकः महाकवि 7.हरिऔध, पृ. 94
8.डॉ. मुकेश कुमार, हिन्दी कविताः राष्ट्रीय चेतना एवं संस्कृति, सम्पादकीय 
9.वही, पृ. 315
10.आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ. 115
11.सम्पा. प्रभात शास्त्री, राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन व्यक्ति और संस्था, पृ. 356
 12. प्रो. प्रदीप के. शर्मा, कार्यालयी हिन्दी, पृ. 12
13. स्वामी विवेकानंद साहित्य, तृतीय खंड, पृ. 29-301
            ✍️लेखक    : डॉ. मुकेश कुमार
                   ग्राम-हथलाना, पोस्ट-मंजूरा
                   जिला-करनाल, हरियाणा

हिंदी की अनन्त यात्रा



हिंदी की अनंत यात्रा


भाषा किसी देश की पहचान और परिचय होती है। बोली-भाषा मानवीय संवेदनाओं की अभिव्यक्ति है। विदेशी भाषा की अपेक्षा व्यक्ति अपनी बोली भाषा में अपने विचारों-भावनाओं का साधिकार, अच्छे तरीके से अच्छी शैली में प्रस्तुत कर सकता है। क्योंकि वह आत्मा से जुड़ी होती है। फिर भाषा का सवाल देश की अस्मिता से भी संबंधित है। इस देश का दुर्भाग्य है कि अपने ही देश में अपनी ही भाषा और बोलियों की दुर्दशा हो रही है। आज के युग के कुछ बेटे-बेटियाँ अपने माता-पिता को वृद्धाश्रम में छोड़ आते हैं, वैसा ही सलूक हम हिन्दी से कर रहे हैं। इसके लिए और कोई नहीं हम स्वयं ही जिम्मेदार हैं। अपनी माँ से हम दासी सा व्यवहार कर रहे हैं। जबकि मातृ-भूमि, माँ और मातृभाषा को लेकर किसी भी प्रकार का कोई भी समझौता नहीं होना चाहिए। एक विदेशी भाषा जो कि हमें हर पल अपनी गुलामी के दिनों की याद दिलाती है, उसे राजभाषा और राष्ट्रभाषा के समकक्ष स्वीकार करना दासत्व की हीन भावना का परिचायक है। देश को आज़ाद होने को तिहत्तर साल हो गए। हमने अंग्रेज़ों की भौतिक गुलामी से तो आज़ादी पा ली लेकिन अंग्रेज़ी रहन-सहन, भाषा और पाश्चात्य संस्कृति की श्रेष्ठता को स्वीकार करते हुए बंदरी के मरे बच्चे के समान इसे कस कर सीने से चिमटाए रखने में गर्व और गौरव का अनुभव करते हैं। अंग्रेजी के मानसिक दासत्व को न केवल हम ढो रहे हैं, वरन् भावी पीढ़ी को भी हम मलाई परत वाली नौकरियों के लालच में गुलाम बनाने में लगे हुए हैं।

इतिहास इस तथ्य का साक्षी है कि हिन्दी की लड़ाई हिन्दीवालों की अपेक्षा अहिन्दी भाषी राष्ट्रनायकों ने जम कर लड़ी थी। बंगाल के राजा राममोहन राय, बंकिम चन्द्र चटर्जी, केशवचन्द्र सेन, गुजरात के स्वामी दयानन्द सरस्वती, महात्मा गाँधी आदि ने भी अनुभव किया कि यदि हम अपनी बात को भारत के कोने-कोने में पहुँचाना चाहते हैं तो हिन्दी से अच्छा माध्यम और कोई नहीं हो सकता। सन् 1918 में गाँधीजी की अध्यक्षता में इंदौर में जो हिन्दी साहित्य सम्मेलन हुआ था उसमें हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का प्रस्ताव पास हुआ था। उसी सम्मेलन में ही दक्षिण भारत में हिन्दी प्रचार के लिए दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा की स्थापना की प्रस्ताव पारित हुई थी और गाँधीजी ने अपने कनिष्ठ पुत्र देवदास गाँधी को इसी काम के लिए मद्रास भेजा था।
गाँधीजी ने उस समय के बहुचर्चित समाचार पत्रिका नवजीवन में लिखा था ‘अगर स्वराज्य करोड़ों भूखों मरनेवालों, निरक्षरों, बहिनों और दलितों के लिए है तो एक मात्र हिन्दी ही देश की राष्ट्रभाषा हो सकती है। तमिलनाडु में राष्ट्रीयता का अलख जगानेवाले तमिल के राष्ट्र कवि सुब्रह्मण्य भारती ने कहा था, ‘‘हिन्दी ही भारत की राष्ट्रभाषा हो सकती है।’’ महाराष्ट्र के सन्त विनोबा ने कहा था, ‘‘हम सब एक हैं यह भाव पैदा करने के लिए कोई साधन होना चाहिए। राष्ट्रभाषा ही वह साधन है। राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी हमारे अंतर्मन की भाषा है।’’
हिन्दी स्वभाव से धर्मनिरपेक्ष और प्रकृति से संघीय है। उसके साथ हमारी राष्ट्रीय अस्मिता और चरित्र जुड़े हुए हैं। रामधारीसिंह दिनकर ने कहा था-‘‘संस्कृत ने हिन्दी को एक खास एंग से विकसित कर उत्तर भारत को एक ऐसी भाषा दी है जो थोड़ी बहुत सभी भाषाओं में समझी जाती है। सुगमता और सरलता उसकी प्रकृति है।’’ डॉ. कामिल बुल्के ने कहा था-‘‘हिन्दी एक शक्तिशाली भाषा है। उसके विकास के साथ देश का विकास अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है।’’
स्वतंत्रता के बाद पिछले 73 वर्षों से हम 14 सितंबर को ‘हिंदी दिवस’ के रूप में मनाते आ रहे हैं। परंतु लक्ष्य प्राप्ति में हम कहाँ तक सफल हुए हैं? 26 जनवरी, 1950 के पहले ही संविधान सभा ने फैसला ले लिया था कि-हिंदी ही राजभाषा होगी। 15 साल तक अंग्रेज़ी उसके साथ चलती रहेगी और उसके बाद सिर्फ हिंदी ही रहेगी। 1965 तक आजादी का उफान अपना आवेग धीरे-धीरे क्षीण होता गया और-भाषा की भी अपनी राजनीति जन्म ले चुकी थी-हिन्दी को लेकर भी राजनीति आरंभ हो गयी थी-संसद में अंग्रेजी को जारी रखने की व्यवस्था कर दी गई। जब तक देश के सभी प्रांतों के लोग हिंदी को न अपना लें-या अंग्रेजी को जारी रखने का विचार बदलकर हिंदी को स्वीकार न कर लें तब तक अंग्रेजी बरकरार रहेगी। इस तरह भारत में दो भाषाएँ चलती रही-हिंदी और अंग्रेजी। 1950 में हिंदी राजभाषा बनी थी और अंग्रेजी सहभाषा, यह स्थिति अब भी है पर केवल संविधान में। असलियत में हिंदी सह भाषा रह गई है, अंग्रेजी ही राजभाषा के रूप में चल रही है।
आज हिंदी प्रांतों में ही कान्वेंट शिक्षा लगातार बढ़ रही है। संपन्न और शिक्षित वर्गों के लिए स्कूली शिक्षा भी अंग्रेजी माध्यम से ही हो सकती है न कि हिंदी। अंग्रेजी आज एक भाषा के रूप में नहीं बल्कि एक माध्यम के रूप में पढ़ाई जा रही है। देश में अब एक नई पीढ़ी तैयार हो रही है जिसकी अपनी कोई भाषा या संस्कृति नहीं है। जो पैंतीस की जगह थार्टी फाइव समझती है। जिसके उच्चारण हिंदी की नहीं अंग्रेजी की वर्तनी के हिसाब से तय होते हैं।
परंतु यह भी नहीं है कि हिंदी का विकास नहीं हो रहा है-प्रयोग नहीं हो रहा है। हिंदी जनभाषा है इसलिए राजभाषा बनी है। राजभाषा के रूप में उसका प्रयोग भी बढ़ रहा है। यह सर्वविदित है कि जब भी अंगे्रजी का मोह खत्म होगा हिंदी ही उसका विकल्प हो सकती है। आजादी की लड़ाई जिस राष्ट्रीय एकता को लेकर लड़ी गई थी-उसमें हिंदी को सभी भाषा-भाषियों ने स्वीकार किया था और वह जनचेतना का वाहक बनी जिसके कारण 26 जनवरी, 1950 में हिंदी को राजभाषा के रूप में स्वीकार किया गया। आज विज्ञान, प्रौद्योगिकी और तकनीकी क्षेत्रों में हिंदी का प्रयोग बढ़ रहा है। उसकी समेकित शब्दावली तैयार की गई है। यदि हम अपनी मानसिकता बदल लें तो स्कूली स्तर पर ही नहीं उच्च शिक्षण और तकनीकी संस्थाओं में भी हिंदी माध्यम को अपनाया जा सकता है-बस इसके लिए हमें मानसिक रूप से तैयार होना है। बस बदलना है तो हमें अपनी मानसिकता।
आइये, आज के इस हिंदी दिवस के पुनीत अवसर पर हम सभी भारतीय यह संकल्प लें कि हिंदी हमारी अस्मिता है, पहचान है। इसे उसकी उचित हक दिलायें और गाँधीजी के स्वप्नों को साकार करें।
 जय हिंद! जय हिंदी!


प्रो. प्रदीप के. शर्मा
कुलसचिव
उच्च शिक्षा और शोध संस्थान
दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा
चेन्नै-17

Friday 5 June 2020

विश्व पर्यावरण दिवस

विश्व पर्यावरण दिवस 

पर्यावरणीय मुद्दों को हल करने के लिए मानव जीवन के बारे में वैश्विक जागरूकता बढ़ाने के लिए विश्व पर्यावरण दिवस (जिसे WED भी कहा जाता है) को 1973 से प्रत्येक 5 जून को वार्षिक कार्यक्रम के रूप में मनाया गया है। कुछ सकारात्मक पर्यावरणीय कार्रवाइयों को लागू करने के साथ-साथ दुनिया भर में आम जनता को जागरूक करने के लिए सरकार या संगठन इसके लिए काम कर रहे हैं। 
विश्व पर्यावरण दिवस के अभियान की शुरुआत संयुक्त राष्ट्र की महासभा के द्वारा 1972 में की गई। यह प्रत्येक वर्ष जून के महीने में 5वीं तारीख को मनाया जाता है। यह मानव पर्यावरण पर स्टॉकहोम सम्मेलन के उद्घाटन के अवसर निकट भविष्य में पर्यावरण के मुद्दों पर ध्यान आकर्षित करने के लिए एक वार्षिक अभियान के रूप में घोषित किया गया था। यह दुनिया भर में गर्म वातावरण के मुद्दों के बारे में जागरूकता पैदा करने के लिए एक मुख्य उपकरण के रूप में संयुक्त राष्ट्र द्वारा निर्मित किया गया था। संयुक्त राष्ट्र द्वारा इस अभियान का मुख्य उद्देश्य लोगों के सामने पर्यावरण के मुद्दों का वास्तविक चेहरा देना और उन्हें विश्वभर में पर्यावरण के अनुकूल विकास का सक्रिय प्रतिनिधि बनाने के लिए सशक्त करना था।
यह (विश्व पर्यावरण दिवस) सुरक्षित भविष्य का निर्माण करने के लिए पर्यावरण की ओर लोगों की धारणा में बदलाव लाने को भी बढ़ावा देता है। विश्व पर्यावरण दिवस मनाने के लिए विज्ञान, तकनीकी और पर्यावरण के लिए केरल राज्य परिषद द्वारा विभिन्न थीमों या विषयों पर आधारित राज्यस्तरीय गतिविधियों का आयोजन किया जाता है।


नामोत्पत्ति :
पर्यावरण का शाब्दिक अर्थ है परि + आवरण यानी चारो तरफ से घिरा हुआ एक ऐसा आवरण जो जीवन जीने के उपयुक्त बनाती है अर्थात हमारे चारो तरफ पाए जाने वाले पेड़- पौधे, वायु, पहाड़, मिट्टी, नदिया, जंगल, जीव-जन्तु आदि सभी मिलकर पर्यावरण का निर्माण करते है
यानि बिना पर्यावरण के मानव या किसी भी जीव-जन्तु, पेड़ पौधे, वनस्पति आदि किसी का भी अस्त्तिव नही है सभी एक दुसरे के पूरक है यदि इनमे किसी में भी बदलाव होता है तो इसका असर सभी के ऊपर देखने को मिलता है।

पर्यावरण का ज्ञान:
शिक्षा के माध्यम से पर्यावरण का ज्ञान शिक्षा मानव-जीवन के बहुमुखी विकास का एक प्रबल साधन है। इसका मुख्य उद्देश्य व्यक्ति के अन्दर शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, संस्कृतिक तथा आध्यात्मिक बुद्धी एवं परिपक्वता लाना है। शिक्षा के उद्देश्यों की पूर्ति हेतु प्राकृतिक वातावरण का ज्ञान अति आवश्यक है। प्राकृतिक वातावरण के बारे में ज्ञानार्जन की परम्परा भारतीय संस्कृति में आरम्भ से ही रही है। परन्तु आज के भौतिकवादी युग में परिस्थितियाँ भिन्न होती जा रही हैं। एक ओर जहां विज्ञान एवं तकनीकी के विभिन्न क्षेत्रों में नए-नए अविष्कार हो रहे हैं। तो दूसरी ओर मानव परिवेश भी उसी गति से प्रभावित हो रहा है। आने वाली पीढ़ी को पर्यावरण में हो रहे परिवर्तनों का ज्ञान शिक्षा के माध्यम से होना आवश्यक है। पर्यावरण तथा शिक्षा के अन्तर्सम्बन्धों का ज्ञान हासिल करके कोई भी व्यक्ति इस दिशा में अनेक महत्वपूर्ण कार्य कर सकता है। पर्यावरण का विज्ञान से गहरा सम्बन्ध है, किन्तु उसकी शिक्षा में किसी प्रकार की वैज्ञानिक पेचीदगियाँ नहीं हैं। शिक्षार्थियों को प्रकृति तथा पारिस्थितिक ज्ञान सीधी तथा सरल भाषा में समझायी जानी चाहिए। शुरू-शुरू में यह ज्ञान सतही तौर पर मात्र परिचयात्मक ढंग से होना चाहिए। आगे चलकर इसके तकनीकी पहलुओं पर विचार किया जाना चाहिए। शिक्षा के क्षेत्र में पर्यावरण का ज्ञान मानवीय सुरक्षा के लिए आवश्यक है।

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 आज का दिन आप सभी के लिए मंगलमयी हो - आप स्वस्थ रहे, सुखी रहे - इस कामना के साथ आप सभी सुधीजनों को विश्व पर्यावरण दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं ।


           ✍️ डॉ. सुरेन्द्र शर्मा
    शर्मा निवास नमाणा, पत्रालय घूण्ड,
तहसील ठियोग, जिला शिमला  (हि.प्र.) 171220
सम्पर्क सूत्र : 98171-01092

Monday 27 April 2020

कनका री बडाही

कनका री बड़ाही पई गी
बडने जो हुई जावा त्यार
दराटियाँ अपनियाँ चंडाई लो
तेज करवाई लओ धार
चन्डने वाले बी नी रहे हुण
निहालियाँ बी करी ती बन्द
जलोथरे पथरा पर पलई लो
कने चलाई लो अपना कम्म
अमाँ बापू पहन पाई
सब पूजे खेता परवाथ दिति  लगाई
दिन लगे चार
पर कनक दिति मुकाई
कनक कठि किती
लाई दिति गडयार
गाहने खातर लगी गे करने
ट्रेक्ट्रा रा इनतिज़ार
इतनिया देरा च आया तूफान
कने पया चख नेहरा
सीजी गई सारी कनक
छैब्बर पया बतेरा
खवाड़े रा ज़माना चली गया
तंन्जे बलदां ने गाहन्दे थे गाहण
प्यागा ते संजा तक बलदां जो कुमाई कने
खुश्क हुई जांदे थे प्राण
कड़याठिया ने देंदे थे छेड़ा
कने सूपा ने करदे थे पुनाई
तुपा ने सिरा री हुई जांदी थी पटाक
सुपलिया ने बी करी लैंदे थे छंड फ़ड़ाक
सूपा चकी ने खड़े रहन्दे थे
बागरिया री करदे थे निहाल
घंटे बाद आउँदा था किते ईक लवाटा
निहाली ने हुई जांदा था बुरा हाल
दानेयाँ भरने जो हुँदा था छकू
भुआ टोने जो खारा
बेरड़ा बांदे थे  खेतें
मंडल बी हुँदा था बहुत सारा
खेता रे कंडे कंडे ब्युली थे बांदे
तितरा जे सेल कने पंगयाठु थे बनान्दे
ब्युलिया रे बनाईंदे थे माला जो रस्से
मंडला री बनाइन्दी थी रोटी
स्वाद बड़ा लाजबाब पावें हुन्दी थी मोटी
अजकल ट्रेक्ट्रा ने ही कनका जो गाहन्दे 
कम्म पवे हुई जांदा जल्दी
पर सतवाँ पीपा देंदी हाण
अग्ग सीने च बल्दी
बेशक अजकल सबी चीजां रियाँ
नविंया मशीना आई गियाँ
पर बरोजगारी बदी गई 
पुशतैनी पेशे ख़त्म कराई  गियाँ

✍️ रविंदर कुमार शर्मा

अपनी मुसकान दीजिए

दो दिन की  जिंदगी है, विश्राम मत लीजिए।
मानवता का हो भला,सदकाम सदा कीजिए।

सुख सुविधा छोड़ दे तू जन परमार्थ के लिए,
तन मन धन अपना निष्काम अर्पण कीजिए।

हो भला स्वदेश का प्राणों का फिर भय क्यों,
सुकरात बन के हंस कर बिष प्याला पीजिए।

बैर भाव मन में ना हो  अपना पराया एक हो,
श्रृद्धा सुमन नित प्रेम के  हर दिल में बीजिए।

रोगीवियोगीभोगी ना आधिव्याधि जग में रहे,
परोपकारी  कर्म से  विपद  सब हर  लीजिए।

चुगली निंदा कभी भी हम किसी की ना करें,
हरहाल देखें हर्ष से अपनी मुसकान  दीजिए।

मूरख रोज परेल़ां पाए

माह्णू  करदा  हाए-हाए,
मूरख  रोज  परेल़ां  पाए।

छंदे - छूह्नीं-तरले - मिनतां,
गल्ला परती सगुण मनाए।

दो   नंबर   दे   धंधे   अंदर,
कुद्दी गलती कुण समझाए?

फरज़ी फंडे फरज़ी झगड़े,
टौरी  जो  बींडू  कुण  लाए?

भारत मां दा छैल़ लखारी,
सुच्चे छंदां अज्ज सुणाए।

तांईं होंग "नवीन" तरक्की,
दुनियां  जै-जैकार  गलाए।

      ✍️ नवीन हलदूणवी
मोबाइल - 8219484701
काव्य - कुंज जसूर_176201,
जिला कांगड़ा ,हिमाचल प्रदेश।

पिंजरे में बंद मानव

क्यों अच्छा लग रहा है न?
अब पंछियों की तरह
कैद होकर
तुम ही तो कहते थे न,
सब कुछ तो दे रहे हैं हम
दाना-पानी
इतना अच्छा पिंजरा
तो अब क्यों ?
खुद ही तड़प रहे हो
उसी पिंजरे में बैठकर।
क्यों बंधे हुए हाथ-पांव
अच्छे नहीं लग रहें तुम्हें?
मगर तुमने भी तो कभी
उड़ते हुए पक्षियों के
पंख बांधकर
सोने के पिंजरे में
उनको रखा था।

✍️ राजीव डोगरा 'विमल'


अनजान

उनकी आँखों का इंतजार हैं हम,             
 फिर भी वो अनजान है।।                  
 उनके चेहरे की हँसी है हम,         
  फिर भी वो अनजान है।।                           
उनके अधरो की 
मुस्कुराहट है हम,    
   फिर भी वो अनजान है।।              
    उनके सपनो के ख्वाब है हम,           
    फिर भी वो अनजान है।।               
   उनके गुस्से की तकरार है हम,            
   फिर भी वो अनजान है।।               
    उनके अहसासो मे बसते है हम,           
   फिर भी वो अनजान है।।                   
   उनके दिल की धड़कन है हम,          
    फिर भी वो अनजान है।।             

      ✍️ अमित डोगरा  

पिता

पिता सचमुच थे तुम सारी दुनिया में अनोखे निराले।
सामने होते थे लगता था तुम हो सारी खुशियां देनेवाले।।

अंगुली पकड़ चलाना दिल के कोने में है मिठ्ठा अहसास। 
दौड़ते गिरना स्वयं न उठाना स्वतः उठे थी दिले तलाश।। 

जग पथरीले को जीतने के लिए पिता का दिल था कठोर होना। 
याद आता है खराब वरताव पंरतु अब लगता है  सुहाना।।

जनक का हृदय कितना दयालु व होता है कितना धनवान। 
अच्छाई याद आती है उनकी जब हो जाता है उनका बिछुड़ना।। 

बच्चों के निर्माण के लिए दिन रात कितना तपता  पापा ।
निर्माण  मजबूत बनें ऐसा अहसान करता जाये पापा।।

✍️ हीरा सिंह कौशल 






बड़ी मुश्किलां रा टाइम आई गया

कुछ तां बैठिरे करा रे अंदर
कुछ करा ते दूर
कोई बच्चेयाँ कने खेल्या करदा
कोई मिलने ते मजबूर
सारा दिन बस दो ही कम्म हे
खाना कने सौणा
मजे लगिरे अजकल मित्रो
आउँदा नी कोई बी प्रौणा
होर तां बस हुण कम्म नी कोई
न खेत देखना न बीड़
सेइ सेई कने पीठ दुखी गई
बखिया बी हुई गी पीड़ 
करा अंदर घूमी कने ही
हुन लगी गरा आउणे चक्कर
बैठे बठाये इस कारोने
देइ तरा सबी जो लक्कड़
शादियां बी लटकी गइयाँ
धार्मिक कम्म बी हुई गए बन्द
ज्यादा मुश्कल तां नेत्याओं जो हुई गई
तिन्हांरा जे उद्घाटन हुई गए बन्द
किसी रा बापू मरी गया
किसी री मरी गई अम्मा
किसी रा मरी गया पुत्र
जवान गबरू था लम्मा
अंतिम संस्कारा जो बी 
लोग नी हुए सके कठे
कई जगह तां टब्बरा रे आदमी बी 
मरीरे मानुये जो चकने रे डरा ते नठे
कारोने रे डरा रा कइयाँ रा
मुश्किलां ने होया अंतिम संस्कार
कइयाँ रे अस्तु डाला ने लटकीरे
पूजी नी सके हरिद्वार
कितनी मुश्किलां रा टाइम आया
माणु जिसदो था प्यार करदा
जे कोई कोरोना ने मरी गया
तां तिसरे नेड़े बी जाने ते डरदा

✍️ रविंदर कुमार शर्मा

Friday 24 April 2020

डॉ. मामराज पुंडीर की कलम से... ✍️

मीडियाकर्मी भी कोरोना फाइटर्स जैसा सम्मान और सुरक्षा पाने के हकदार

विश्व  का सबसे बढ़ा  लोकतंत्र  हिंदुस्तान एक मजबूत कड़ी के रूप मे खड़ा है और ऐसे मे विश्व की सारी एजेंसी की नजर भारत द्वारा किये गये कार्यों की तरफ हमेशा से बनी रहती है । हिंदुस्तान का मिडिया भी देश आपातकाल की यादो को अगर भूल जाये तो स्वतंत्र रूप से काम कर रहे है। वेसे भी मिडिया को लोकत्रंत्र का चोथा स्तम्भ मन जाता है और  मजबूत सतम्भ होने के नाते मिडिया समाज की कुरूतियों के साथ साथ कमियों को सरकार के पास उठाने  का काम बखूबी करती आ रही  है।

कोरोना संक्रमन से आज पूरा विश्व  ग्रसित है इस महामारी से विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत भी अछुता नही रहा । ऐसे मे किस देश में कोरोना के कितने मरीज ग्रसित है या किस राज्य मे कितने मरीज है और कोरोना पर मिनट डॉ मिनट के खबरों को हम तक पहुचने का काम करते है।  देश में कोरोनावायरस के संक्रमण को फैलने से रोकने के लिए जब प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने लाक डाउन लागू करने की घोषणा की तो अधिकांश आबादी की ज़िन्दगी घर की चार दीवारी के भीतर सिमट कर रह गई और जब देश के विभिन्न राज्यों में इस वायरस के संक्रमण का दायरा बढने लगा तो यह जानने के लिए लोगों की अधीरता भी बढने लगी कि देश के किस राज्य में कोरोना वायरस के संक्रमण की क्या स्थिति है।

लोगों की यह अधीरता अभी भी बरकरार है बल्कि अगर यह कहें कि कोरोना को लेकर देश दुनिया के हालात जानने की यह उत्सुकता पहले से भी अधिक बढ़ गई है तो गलत नहीं होगा। हमारी इस उत्सुकता को शांत करने मे इलेक्ट्रानिक मीडिया और प्रिन्ट मीडिया, दोनों ही अहम भूमिका निभा रहे हैं। सुबह, शाम अगर हमें  दैनिक समाचार पत्रों की अधीरता से प्रतीक्षा करते हैं तो दिन में अधिकांश समय या तो हम दूरदर्शन के सामने बैठे रहते हैं अथवा मोबाइल के माध्यम से कोरोना संक्रमण के बारे में नवीनतम जानकारी हासिल करके अपनी उत्सुकता को शांत करने का प्रयास करते हैं।

इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया से जुड़े लोग कोरोना वायरस के प्रकोप के बारे में नवीनतम जानकारी हम तक पहुंचाने के लिए जिस समर्पण भावना के साथ रात दिन अपने काम में जुटे हुए है उसके लिए वे निसंदेह समाज से सराहना पाने के हकदार हैं। ये लोग भी कोरोना वायरस के संक्रमण के खतरे से पूरे साहस के साथ जूझते हुए अपने काम में कुछ इस तरह जुटे रहते हैं कि उस समय बाकी सुख सुविधाएं उनके लिए कोई मायने नहीं रखतीं। चूंकि हम मीडिया के लोगों के सीधे संपर्क में नहीं रहते इसलिए हम उनकी कठिनाईयों से अवगत नहीं हो पाते।

मीडिया कोरोना वायरस के संक्रमण के बारे में लोगों को सचेत एवं जागरूक करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। लाक डाउन के कारण अगर कहीं गरीब तबके के लोगों को कठिनाई हो रही है तो कई बार मीडिया के माध्यम से ही सरकारों को उसकी जानकारी मिली है और सरकार ने उन कठिनाईयों को दूर किया है।
विगत दिनों ऐसा ही एक उदाहरण दिल्ली में देखने को मिला था। लाकडाउन के कारण दिल्ली में बहुत से गरीब मजदूर यमुना नदी पर पुल के नीचे दयनीय हालत में दिन गुजार रहे थे।उन्हें पेट भरने के लिए ठीक से भोजन भी नसीब नहीं हो रहा था। एक समाचार चैनल द्वारा इस खबर को प्रसारित किए जाने के बाद कुछ ही घंटों के अन्दर सरकार की बसें वहाँ पहुंच गई और उनके द्वारा मजदूरों की सुरक्षित स्थानों पर न केवल रहने की व्यवस्था कर दी गई बल्कि उन्हें नियमित भरपेट भोजन भी मिलने लगा इसलिए यह सोचना गलत है कि मीडिया केवल आलोचना करता है। देश के विभिन्न हिस्सों में विस्थापित गरीब मजदूरों की कठिनाईयों को दूर करने में मीडिया महत्व पूर्ण भूमिका रहा है। शिमला में मिडिया द्वारा घोड़े चलाने के मामले को सरकार के पास लाते ही उनकी समस्याओं का हल हो गया । हिमाचल प्रदेश में चाहे वह राजनेता का योगदान हो या किसी समाज सेवक का योगदान, उसे मिडिया द्वारा ही चर्चा का विषय बना कर जनता को जागृत किया गया । एक सच्चे सिपाही की तरह सुबह घर से निकल कर समाज की हितो की आवाज बनने वाले मिडिया से सम्बन्धित पत्रकार क्या कोरोना वोर्रिएर्स के सम्मान के हक दर नही।

कोरोनावायरस के संक्रमण के खतरों के प्रति लोगों को सचेत करने में मीडिया सरकार के साथ कंधे से कंधा मिला कर खड़ा है। कोरोना वायरस के प्रकोप के कारण अनेक राज्यों के कई शहरों ,जिलों यहां तक कि राज्यों की सीमाओं को भी सील कर दिया गया है ऐसे स्थानों पर मीडिया कर्मियों को जाने की अनुमति है ताकि वे मौके पर मौजूद रहकर वहां की वास्तविक स्थिति की जानकारी एकत्र करके उसे समाचार पत्रों अथवा दूरदर्शन के माध्यम से हम तक पहुंचा सकें।

रेड जोन औरआरेंज जोन में आने वाले ऐसे संवेदनशील इलाकों में भी जाने से मीडिया कर्मी परहेज नहीं करते जहां पुलिस, चिकित्सक, पेरामेडिकल स्टाफ के सदस्य भी इस आशंका के साथ जाते हैं कि उन पर वहां हमला भी हो सकता है। चिकित्सकों, पेरामेडिकल स्टाफ के सदस्यों और पुलिस बल की भांति मीडिया कर्मी अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन एक मिशन के रूप में कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि उनको अपनी जिम्मेदारियों के निष्ठापूर्वक निर्वहन के मार्ग में किन्हीं कठिनाईयों का सामना नहीं करना पड रहा है परंतु अपने कर्तव्य पालन के प्रति समर्पण की भावना उन्हें बड़े से बड़े जोखिम उठाने का साहस और आत्मविश्वास भी प्रदान करती है।
मीडिया जब यह तय कर लेता है कि वह सच रहेगा और सच के सिवा कुछ नहीं करेगी तो उसके जोखिमों में इजाफा हो जाता है|समाचार पत्र में पूरा सच छापना और दूरदर्शन पर पूरा सच दिखाने के रास्ते में अनेक जोखिम आड़े आते हैं और कोरोना वायरस के संक्रमण से संबंधित सच को उजागर करने में भी कम जोखिम नहीं हैं परंतु मीडिया को कोई भी जोखिम अभी तक विचलित नहीं कर सका है।गौर तलब है कि हाल में ही मीडिया कर्मियों को उन लोगों अथवा संगठनों की ओर से धमकियां मिल चुकी हैं जिन्हें अपने बारे में सच दिखाया जाना सहन नहीं हुआ। कहीं कहीं मीडिया कर्मियों पर हमले भी हुए हैं परंतु किसी भी धमकी अथवा हमले से मीडिया का मिशन कमजोर नहीं पड़ा।

लाक डाउन लागू होने के बाद विगत एक माह के दौरान देश के अनेक भागों से चिकित्सको , पैरामेडिकल स्टाफ के सदस्यों एवं पुलिस अधिकारियों कर्मचारियों के समान ही अनेक मीडिया कर्मियों के भी कोरोना वायरस से संक्रमित हो जाने के समाचार मिल रहे हैं।हाल में ही मुंबई में पत्रकारों के एक संगठन ने मीडिया कर्मियों के लिए एक कोरोना जांच शिविर काआयोजन किया था उसमें 167 पत्रकारों का परीक्षण क्या गया जिनमें से 53 पत्रकारों को कोरोना पाजिटिव पाया गया। उनमे से 114 पत्रकारों की रिपोर्ट नेगेटिव आई।कोरोना पाजिटिव पत्रकारों को अस्पताल में भर्ती कराया गया है और अब यह पता लगाया जा रह़ा है कि जिन पत्रकारों की रिपोर्ट पाजिटिव आई है वे विगत एक माह के दौरान किन किन लोगों के संपर्क में आए थे ।मुंबई में इतनी अधिक संख्या में पत्रकारों के कोरोना संक्रमित हो जाने के बाद अब अन्य प्रदेशों की सरकारों ने भी मीडिया कर्मियों के स्वास्थ्य परीक्षण के लिए शिविर लगाने का फैसला किया है और सबसे पहले इस काम के लिए पंजाब और दिल्ली की सरकारें आगे आई हैं। इसी प्रकार का मामला हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा में एक पत्रकार के साथ देखने में आया है। 

इस सम्बन्ध में सभी केंद्र सरकार का दायित्व बनता है कि इस संबंध में एक गाइड लाइन जारी करे और संपूर्ण देश में फील्ड में काम करने वाले मीडिया कर्मियों को पी पी ई किट प्रदान करने के लिए सभी राज्य सरकारों को निर्देशित करे।पाजिटिव पाए जाने के पूर्व मध्य प्रदेश में एक पत्रकार को कोरोना पाया गया था राज्य सरकारों को निर्देशित कर दे। गौर तलब है कि मुंबई में 53 पत्रकारों के कोरोनापाजिटिव पाए जाने के पूर्व मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में भी एक पत्रकार को कोरोना पाजिटिव पाया गया था।यह तब की बात है जबकि राज्य में कोरोनावायरस का संक्रमण बहुत अधिक नहीं फैला था।

देश के कई अन्य हिस्सों में मीडिया कर्मियों के कोरोना संक्रमित होने की बढती खबरों ने केन्द्र सरकार का भी ध्यान आकर्षित किया है और अबउसकीओर से प्रिन्ट मीडिया एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए एक एडवायजरीजारी की गई है जिसमें रिपोर्टर केमरामेन और फोटोग्राफर आदि मीडिया कर्मियों को हाट स्पाट, कोरोना संक्रमित क्षेत्रों,हाट स्पाट और कोविड19 से प्रभावित अन्य इलाकों में जाते समय स्वास्थ्य संबंध सभी आवश्यक सावधानियां बरतने की सलाह दी गई है।
इस एडवायजरी में मीडिया घरानों के प्रबंधन से भी फील्ड एवं कार्यालय में काम करने वाले अपने कर्मचारियों की देख रेख करने का अनुरोध किया गया है। दरअसल आवश्यकता तो इस बात की है कि जिस तरह मीडियाकर्मियों के कोरोना संक्रमित होने की खबरें सामने आ रही हैं एवं निष्पक्ष समाचारों के प्रसारण के कारण उन्हें जो धमकियां मिल रही हैं उसे देखते हुए उनका भी बीमा कराया जाना चाहिए।मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने भी राज्य की शिवराजसरकार से मीडिया कर्मियों को पी पी ई किट प्रदान करने एवं उनका बीमा कराने की मांग की है।

मीडिया कर्मियों को न तो कोरोना वायरस के संक्रमण का खतरा कर्तव्य पालन के मार्ग से विचलित कर पा रहा है और न ही वे किसी भी तरह की धमकियों से भयभीत हैं वे पूर्ण समर्पण की भावना के साथ निर्भय होकर अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह कर रहे हैं। चिकित्सकों, पैरामेडिकल स्टाफ के सदस्यों और पुलिस बल के समान मीडियाकर्मी भी जिस तरह निष्ठापूर्वक अपना कर्तव्य पालन कर रहे हैं वह निसंदेह सराहनीय है परंतु दूसरी ओर ऐसी खबरें भी आ रही हैं कि कुछ मीडिया घरानों का प्रबंधन लाक डाउन के कारण आर्थिक संकट की दुहाई देकर अपने कुछ कर्मचारियों को नौकरी से हटाने में भी संकोच नहीं कर रहा है।

गौरतलब है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विगत दिनों राष्ट्र के नाम संदेश में समाज के सभी वर्गों से जिस सप्तपदी को जीवन में उतारने की अपील की थी उसमें एक सूत्र यह भी था कि इस कठिन समय में किसी भी संस्थान में कार्यरत कर्मचारियों को उसका प्रबंधन नौकरी से न निकाले परंतु कई मीडिया घरानों के प्रबंधकों ने अपने संस्थान में कार्यरत कुछ कर्मचारियों को या तो नौकरी से हटा दिया है अथवा उन्हें खुद ही नौकरी छोड़ने पर विवश कर दिया है। कुछ संस्थानों ने अपने कुछ कर्मचारियों को जबरन अवकाश पर भेज दिया है।

कुछ संस्थानों में मीडियाकर्मियों के वेतन में कटौती करने अथवा उनका वेतन रोक लिए जाने की खबरें मिली हैं।अब जबकि लाकडाउन का एक माह से ज्यादा बीत चुका है। मीडियाकर्मियों की कठिनाईयों की ओर ध्यान भी दिए जाने की आवश्यकता है। मीडिया कर्मी भी कोरोना फाइटर्स जैसा सम्मान पाने के अधिकारी हैं ।कोरोना संक्रमण की परवाह किए बिना वे जिस तरह समर्पित भाव से अपने काम में जुटे हुए हैं उसका सही मूल्यांकन किया जाना चाहिए। जो मीडियाकर्मी फील्ड में काम कर रहे हैं उन्हें पी पी ई किट की उपलब्धता सुनिश्चित करने के साथ ही उनका कम से कम 50 लाख का बीमा भी कऱाया जाना चाहिए। सरकार को यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि किसी भी मीडिया संस्थान में कर्मचारियों को प्रबंधन की मनमानी का शिकार न बनना पड़े।

आज राष्ट्रिय आपदा में देश के प्रधानमन्त्री आदरणीय नरेंद्र मोदी जी अपने संदेशो में मिडिया कर्मियों की कर्मठता की तारीफ कर चुके है । ऐसे में मिडिया कर्मियों को कोरोना वोर्रिएर्स का सम्मान मिलना लाजमी है और जिस प्रकार हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री आदरणीय जय राम ठाकुर ने एक कप्तान की तरह कोरोना से लड़ने का बीड़ा अपने कंधो पर उठा कर अपनी टीम के साथ लड़ाई लड़ी है , उनसे इस विषय पर विचार करने और लागु करने की उमीद बढ़ जाती है । 

✍️ डॉ. मामराज पुंडीर 
विशेष कार्य अधिकारी
शिक्षा मंत्री, हिमाचल सरकार 
mamraj.pundir@rediffmail.com
9418890000, 9418014586

कोरोना


शिष्टाचार का मार्ग हमें है दिखाया कोरोना ने।
बुरे वक्त में जीना हमें है  सिखाया कोरोना ने।
मास्क पहन कर बात करो हाथ नही मिलाना,
दूर  से अभिनंदन करना है बताया कोरोना ने।
कई बार  पड़ोसी अपनें से होती  तकरार रही,
है,पड़ोसी रह रह  कर याद कराया कोरोना ने।
हाथ मुंह धोनें  की  किस को  फुर्सत होती थी,
बार बार सावुन मल  हाथ धुलाया कोरोना ने।
किसनें खाया कब खाया पता नहीं चलता था,
सभी को मिल बैठ खाना खिलाया कोरोना ने।
अकेली नारी क्या करे है रसोई  पीछा न छोड़े,
अब सभीसे देखो तड़का लगवाया कोरोना ने।
अपनीऔकात में रह बंदे कोई छोटा बड़ा नहीं,
एक इंसानी  जात तेरी है  बतलाया कोरोना ने।
इंसान को अपनी हैसियत का है पता चल गया,
कैसे सभी को है ऊँगली पर नचाया कोरोना ने।
उस के  घर देर नहीं कब  कहाँ क्या हो जाएगा,
देख हाहाकार है  बंदे  कैसा मचाया कोरोना ने।

✍️ शिव सन्याल
राम निवास मकड़ाहन
तह.ज्वाली कांगड़ा हि.प्र. 

तैत्तौं होई भुल्ल कुथू ऐ

सच्चे दा हुण मुल्ल कुथू ऐ,
बोल्लण बत्ती गुल्ल कुथू ऐ?

भलमणसाई धप्फे खा$ दी,
चबल़ चरकटा टुल्ल कुथू ऐ?

पाईत्ते    हन   लोक   कुबत्ता,
रोक्कण ब्हाल़ा ठुल्ल कुथू ऐ?

ब्यूंतड़  झोट्टी  छैल़  सुनक्खी,
दुद्ध  भरोया  उल्ल  कुथू  ऐ?

भास्सा स्हाड़ी मुक्का करदी,
खुशबू ब्हाल़ा फुल्ल कुथू ऐ?

ठंड्डैं   तांऐं  सोच  "नवीना",
तैत्तौं  होई  भुल्ल  कुथू  ऐ?

    ✍️ नवीन हलदूणवी
काव्य - कुंज जसूर-176201
जिला कांगड़ा ,हिमाचल प्रदेश।

Thursday 23 April 2020

मां सुखदायिनी

हे जननी तू बड़ी सुखदायिनी जीवनदायिनी।
जीवन के सफर गाऊं तेरे उपकार की रागिनी।।

जादू की छड़ी है बिन बोले तूने मेरी हरेक बात जानी। 
बीमारी ठीक होने के लिए तूने परमेश्वर से लडाई की ठानी।।

खोली संस्कारी पाठशाला तुझ सा नहीं कोई सानी। 
खुद मुसीबत थी तूने अपने लला की मुसीबत जानी।। 

कुकृत्य से रोकती तूने हर रग रग लला की पहचानी। 
ऋणी हूं ऋणी रहूंगा उऋण हूंगा तब तक बात ठानी।।

सुकृत्य करुं तेरी परवरिश झलके कर्मों हो यही निशानी।
परमेश्वर का रूप ही तेरा बात में मैंने मन ली यही ठानी।।

✍️ हीरा सिंह कौशल 


महामारी या संदेश

कोविड-19 एक ऐसा नाम जिसने पूरे विश्व में डर का माहौल बना दिया है। ऐसी महामारी जो थमने का नाम ही नहीं ले रही, लाखों की संख्या में लोग इसकी चपेट में आ चुके है और ना जाने आगे यह संख्या कितनी बढ़ेगी? हैरानी तो तब होती है जब अमेरिका, फ्रांस,  ब्रिटेन, इटली जैसे विकसित राष्ट्रों के आंकड़े बढ़ते ही जा रहे हैं। अपने आप को शक्तिशाली कहने वाले यह राष्ट्र भी “कोविड-19” को बस में नहीं कर पा रहे उद्योग धंधे,  पाठशालाएं, लोगों की आवाजाही सब कुछ बंद हो गया  है। पूरा विश्व ठहर सा गया है। 

लेकिन अगर दूसरे पहलू पर बात करें तो लगता है कि यह और कुछ नहीं प्रकृति का एक संदेश है मनुष्य के नाम मानो  प्रकृति  कह रही हो  कि “ए मानव संभल जा मुझे भी तो सांस लेने का मौका दे दे, वरना ! मेरा कहर ऐसा  बरसेगा  किं मुझे सोचने समझने का मौका भी नहीं मिलेगा।" धरती पर जन्म लेने वाला हर प्राणी धरती माता की संतान है,  चाहे वह मनुष्य हो या कोई जीव जंतु | सभी का धरती के  संसाधनों पर बराबर का अधिकार है ,  फिर मनुष्य इस अधिकार को किसी और से कैसे छीन सकता है?

वर्तमान स्थिति में मनुष्य को छोड़कर सभी जीव जंतु खुले में घूमने का आनंद ले रहे हैं | कभी गजराज को “हरकी पौड़ी” में नहाते देखा गया तो कभी बाघ को सड़कों पर घूमते हवा साफ हो गई है, उत्तर से लेकर दक्षिण तक की नदियों का जल स्वच्छ होकर पीने योग्य हो गया, शहर में जहां प्रदूषण के बादल छाए रहते थे वहां शीशे जैसे साफ बादल हो गए हैं,  लोग रात में आसमान में तारों को देख पा रहे हैं। प्रकृति आनंद विभोर होकर नाच रही है क्योंकि प्रकृति का दोहन करने वाला मानव आज अपनी ही कैद में बंद हो गया है। मनुष्य यह भूल चुका है कि प्रकृति का सौंदर्य भी एक अद्भुत उपहार है, इस को संजो कर रखना भी मनुष्य का ही कर्तव्य है। प्रकृति की शक्ति को पहचानना आवश्यक है वरना प्रलय हो सकता है। 

क्या आपको नहीं लगता यह महामारी के रूप में एक संदेश है जो हमारे जीने के तरीकों को बदलने के लिए कह रहा है? हमें प्रकृति के साथ सामंजस्य कायम करने को कह रहा है। आज इंसान केवल दिखावे और पैसे के लिए भाग रहा है और अपने लालच और भूख को मिटाने के लिए प्रकृति के साथ खिलवाड़ कर रहा है। हमें अपने जीवन में बदलाव लाने के लिए हर पहलू पर पुनर्विचार करना होगा जैसे वस्तुओं का दोबारा उपयोग यानी रीसाइक्लिंग, शादियों और अन्य आयोजनों में सादगी लाना,  स्वदेशी उत्पादन पर जोर, सामूहिक दूरी बनाए रखना, शिक्षा देने के नए तरीके तलाशना जिससे कक्षा में भीड़ कम हो और समाजवाद को बढ़ावा देना इत्यादि। आज पूरे विश्व में  महात्मा गांधी के विचारों को प्रासंगिक करने का समय आ गया है। उनके आदर्श प्रकृति के साथ सामंजस्य को लेकर बहुत प्रबल थे। उस भारतीय चेतना को जगाने का समय आ गया है जो विश्व के लिए एक मार्गदर्शक की भूमिका निभा सकती है।  इस महामारी को संदेश के रूप में लेकर कि आगे के जीवन को सफल करना ही मनुष्य का लक्ष्य होना चाहिए। 

✍️ कल्पना शर्मा

लोक घुल़ाई ते

लगा जिस दा ज़ोर,सिक्का चमकाई गे।
तु सुत्ती रेई निंदरा , कन्रे चोर दा लाईगे।
पक्काई कन्ने रोटियाँ अन्दर जे गेई सैह्,
पिण्डे  दे  कुत्ते आई, रोटियाँ    खाईगे।
जिन्हाँ पर कित्ता तू विसवास मेरे मित्रा,
पैरां हत्थ लाई करी, गल्ल़े तक आईगे।
जिन्हां ताँई खाणें कि पत्तल़ाँ बिछांईयाँ,
बदोबदी पैंठी बैई, पक्खले ही खाई गे।
हत्थां जोड़ी मिसणा, था घर घर मंगदा,
सुंडू दी जे गठ्ठ मिली, अपणें भुलाई ते।
अग्ग  भड़काई  दित्ती, दंगे  करवाई ने,
नफरता दे खूब तीखे , तीर  चलाई  ते।
शिव भाईचारा किञ्याँ  करी  टिकणा,
थाँई थाँई धर्मा च, लोक  जे  घुल़ाई ते।
               
             ✍️  शिव सन्याल
           राम निवास मकड़ाहन
         तह.ज्वाली, कांग्रेस, हि.प्र

नवीन हलदूणवी की कलम से

दो  नंबर  जो  असर  कुथू

दो  नंबर  जो  असर  कुथू,
निकल़ा करदी कसर कुथू?

सैल्ले    रुक्ख    बढाईत्ते,
नौंईं   कुंबल़   टसर  कुथू?

सच्चे - सुच्चे  भगतां  दा,
कलयुग अंदर वसर कुथू?

शैताने   जो   भोग   मिलै,
सिद्धे  जो हुण  मसर कुथू?

कवियां  गीत  कवित्त  घड़े,
छैल़  छबीली  नसर  कुथू?

छंद  दिली  छड्ड  "नवीना",
असर कुथी हो पसर कुथू?

                ***

सुक्के बंजर अब्बल जी

बद्दल़ करदा खज्जल़ जी,
सुक्के  बंजर  अब्बल जी।

पौंदी   मार   कसान्ने   जो,
टुट्टा   करदी  झब्बल़  जी।

भो$  बी  काल़ा  पेई  जा,
पल्लै किछ नीं डब्बल़ जी।

धूड़  सिरैं  बी  पौआ  दी,
मौज़ां  लैंदे  चब्बल़  जी।

डंग्गर  तड़फन  भुक्खा  नैं,
मुल्लैं  थ्होंदा  खब्बल़  जी।

धुप्पा  पौन  "नवीने"  जो,
पिट्ठी फालक-सब्बल़ जी।

             ***

लग्गी मौज़ भरूरां जो
       
फाक्के तां मज़दूरां जो,
सब्बो तोप्पण हूरां जो।

लकड़ी खूब कटोआ दी,
रोक  कुथू  ऐ  सूरां  जो?

घर-घर  खौद्दल़  पेई  ऐ,
गाल़ - मुआल़ी नूरां जो।

नित्त  नसेड़ी  नच्चा  दे,
कस्सण  पुट्ठे  टूरां  जो।

भलमणसाई सोच्चा दी,
रोआ  करदी  झूरां  जो।

इत्थू  झंड्ड  "नवीने"  दी,
लग्गी  मौज़  भरूरां  जो।

            ***

   ✍️ नवीन हलदूणवी
मोबाइल - 8219484701
काव्य - कुंज जसूर-176201,
जिला कांगड़ा ,हिमाचल प्रदेश।

Wednesday 22 April 2020

ख्वाब़


मरमरी सी उदास मन वाली हुई थी बेजान जिंदगी। 
चांद से मुखड़े मृगनयनी आंखों ने भरी रवानगी।

हृदय पटल कोने में छुपी मनमोहक तस्वीर ने दी जिंदगी। 
साधना कट बालों का घायल होती मासूम भोली जिंदगी।। 

शरमा के जमीं का वो कुरेदना बदलता फलसफा जिंदगी।
ख्वाब़ बुनते ताना बाना घर बसाने की चाह में जिंदगी।। 

नन्हें नन्हें फरिश्तों के आगमन  मन में उल्लास है जिंदगी।
यूं ही ख्वाबों के सफर में सुकुन से गुजरते जाये जिंदगी।। 

ख्वाबों का आइना ना टूटे यही बना रहे हकीकते जिंदगी।
ताउम्र साथ बना रहे ख्वाबों में भी ना रुठे सुनहरी जिंदगी।।

✍️ हीरा सिंह कौशल 

राष्ट्र भक्ति से प्रेरित स्वयंसेवक हराएंगे कोरोना को, संघ के स्वयं सेवको का संकल्प

एक ऐसा वायरस , जिसने वायरस बनाने वाले देश के साथ साथ विश्व की महाशक्ति को भी घुटने टेकने के लिए मजबूर कर दिया। ऐसा दानव जिसके आगे अमेरिका, इटली, चीन, फ़्रांस, ब्रिटेन सहित सभी यूरोपियन देश को बर्बादी के कगार पर खड़ा कर दिया । काश  गाँधी जी ने स्वयं सेवको की मन की इच्छा को बटवारे के वक्त सुन लिया होता, तो आज हम कोरोना से निपट गये होते ।  कुछ लोगो की अनपढ़ता के कारन आज भारत कोरोना से ग्रसित हुआ है। फिर भी उम्मीद है हम जीतेंगे और कोरोना सहित वह सभी हारेंगे जो भारत में रहते हुए भारत को हराना चाहते है। 

कोरोना ऐसा संकट  है, जिसने विशव के साथ साथ हिन्दुस्तान की भोली भाली जनता को जिन्होंने अपने प्रधानमंत्री जी के एक आह्वान पर अपने सरे उत्सव, त्यौहार यहाँ तक की नवरात्रों की पूजा को भी छोड़ दिया ।ताकि  भारत से  संकट को टाला जा सके । इस महासंकट के निजात पाने में दुनिया की बड़ी-बड़ी शक्तियां धराशायी हो गई या स्वयं को निरुपाय महसूस कर रही है। ऐसे समय में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एवं उसके स्वयंसेवक अपनी सुनियोजित तैयारियों, संकल्प एवं सेवा-प्रकल्पों के जरिये कोरोना के खिलाफ लड़ाई में जरूरतमंदों की सहायता के लिये मैदान में हैं। ‘नर सेवा नारायण सेवा’ के मंत्र पर चलते हुए देश के 529 जिलों में 39 लाख से अधिक स्वयंसेवक हर स्तर पर राहत पहुंचाने में जुटे हैं। राष्ट्रीय भावना से प्रेरित यह स्वयंसेवक देश के अलग-अलग हिस्सों में वे गरीब और जरूरतमंदों को भोजन खिला रहे हैं। देश के हालातों से भली भांति वकिफ यह स्वयंसेवक शाखाओं और मिलन के कार्यकर्मों से गाँव गाँव, गल्ली गल्ली जाते है , इसे मे अपने क्षेत्र की हर समस्या से लेकर जरुरत मंद लोगो को जानते और पहचानते है । इसलिए गाँव गाँव , गल्ली गल्ली,बस्तियों में जाकर मास्क, सेनेटाइजर, दवाइयां एवं अन्य जरूरी सामग्री बांटकर कर लोगों को राहत पहुंचा रहे है । या यूँ कहिये जिन रास्तो पर सरकार और सरकार से फण्ड लेने वाली एनजीओ नही जाती वहांएक राष्ट्रवादी स्वयंसेवक जाता है और जनता को  जागरूक कर रहे हैं। वे इस आपदा-विपदा में किसी देवदूत की भांति सेवा कार्यों में लगे हुए हैं। उनके लिए खुद से बड़ा समाज है। उनकी संवेदनशीलता एवं सेवा-भावना की विरोधी भी प्रशंसा करने से स्वयं को रोक नहीं पा रहे हैं। यह ऐसी उम्मीद की किरण है जिससे आती रोशनी इस महासंकट से लड़ लेने एवं उसे जीत लेने का होसला दिखा कर इस लड़ाई में जितने की सभी संभावनाओं को उजागर कर रही है।

कोरोना वायरस के खिलाफ लड़ाई में भी संभावना भरा नजारा दिखाई दे रहा है। जब सारा देश अपने घरों में कैद होने को मजबूर है, वायरस जानलेवा है। ऐसे मे जहां शहर के शहर लॉकडाउन हो गए हैं। चारों तरफ आवागमन बंद हुआ पड़ा है। ऐसी स्थिति में भी संघ के स्वयंसेवक बिना अपनी जान की परवाह किए देश के अलग-अलग हिस्सों में जरूरतमंद लोगों तक राहत पहुंचाने में जुटे हुए हैं। जब संकट बड़ा हो तो संघर्ष भी बड़ा अपेक्षित होता है। इस संघर्ष में संघ कार्यकर्ताओं की मुट्ठियां तन जाने का अर्थ है कि किसी लक्ष्य को हासिल करने का पूरा विश्वास जागृत हो जाना। अंधेरों के बीच जीवन को नयी दिशा देने एवं संकट से मुक्ति के लिये कांटों की ही नहीं, फूलों की गणना जरूरी होती है। अगर हम कांटे-ही-कांटे देखते रहें तो फूल भी कांटे बन जाते हैं। । हकीकत तो यह है कि हंसी और आंसू दोनों अपने ही भीतर हैं। अगर सोच को सकारात्मक बना लें तो जीवन हंसीमय बन जाएगी और संकट को हारना ही होगा।

कोरोना वायरस के चलते सब कुछ बंद हैं, दुकान, प्रतिष्ठान, फैक्ट्री, व्यापार पर ताला जड़ा हुआ है। ऐसे में रोजमर्रा काम करने वालों के लिए निश्चित ही समस्या खड़ी हुई हैं। इस स्थिति में जो लोग रोज कमाकर खाते हैं उनको जीवन-निर्वाह में कोई परेशानी न होने पाए इसके लिए संघ विशेष जागरूक हैं। मध्यप्रदेश के जबलपुर में गोकुलदास धर्मशाला में स्वयंसेवकों ने गरीब और जरूरतमंद लोगों के लिए मुफ्त में भोजन की व्यवस्था की। तो इसी तरह भीलवाड़ा में भी ऐसा ही कुछ नजारा दिखाई दिया जब राहत कार्यों के साथ गरीबों के लिए भोजन की व्यवस्था करते स्वयंसेवक नजर आए। गांव में स्वच्छता बरकरार रहे इसके लिए कुछ स्वयंसेवकों ने मिलकर गांवों को बाकायदा सेनेटाइज तक किया है। झाडू लेकर सफाई करते दिखाई दिये हैं। केरल में सेवा भारती के स्वयंसेवकों ने पुलिस और अग्निशमन दल के साथ मिलकर अस्पतालों के परिसर की सफाई की और उन्हें कीटाणुरहित बनाने में सहयोग किया। कोथमंगलम, कोडुंगल्लूर और राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में स्वयंसेवक साफ-सफाई और स्वच्छता में लगे हुए हैं।हिमाचल प्रदेश में स्वयंसेवकों ने प्रशासन के साथ साथ मिल कर काम किया और हिमाचल प्रदेश के दूर दराज क्षेत्रो में सरकार के साथ मिल कर दवाई सहित जरूरत का सामान पहुचने में अग्रणी भूमिका अदा कर रहें है । हिमाचल प्रदेश के दूर दराज जिला सिरमौर मे स्वयंसेवको ने पंचायतो के साथ मिल कर जरूरत मंद लोगो को सहयोग कर एक उदाहरण पेश करने का काम किया और लोगो को इस महामारी से मिलकर सामना करने का आह्वान किया । जिसका फायदा यह हुआ किजिल्ले की साथ लगती पंचायतो ने इस मुहीम का स्वागत कर जनमानस को सहयोग करने और योगदान देने का पर्ण लिया।

सरकार्यवाह श्री भैयाजी जोशी ने स्वयंसेवकों से कोरोना के खिलाफ लड़ाई में स्थानीय प्रशासन के साथ जुटने का आहृवान किया था और एक लाख से अधिक सेवा प्रकल्प प्रारंभ किये। उन्होंने कहा था कि स्वयंसेवक छोटी-छोटी टीमें बनाकर समाज में सहायता, स्वच्छता, स्वास्थ्य. जागरूकता लाने के लिए कार्य करें। इस आहृवान के बाद से देश के अलग-अलग हिस्सों में संघ के स्वयंसेवक सेवा कार्य में जुट गए हैं। कोरोना वायरस के कारण भारतीय जनजीवन में अनेक छेद हो रहे हैं। जिसके कारण अनेक विसंगतियों को जीवन में घुसपैठ करने का मौका मिल रहा है। जोशी ने संकल्प व्यक्त किया कि हमें मात्र उन छेदों को रोकना है, बंद करना है बल्कि जिम्मेदार नागरिक की भांति जागरूक रहना होगा। यदि ऐसा होता है तो एक ऐसी जीवन-संभावना, नाउम्मीदी में उम्मीदी बढ़ सकती है। जो न केवल सुरक्षित जीवन का आश्वासन दे सकेगी। बल्कि कोरोना महासंकट से मुक्ति का रास्ता भी दे सकेगी। प्रयत्न अवश्य परिणाम देता है। जरूरत कदम उठाकर चलने की होती है। विश्वास की शक्ति को जागृत करने की होती है। विश्वास उन शक्तियों में से एक है जो मनुष्य को जीवित रखती है। संकट से पार पाने का आश्वासन बनती है।

एक तरफ कोरोना के डर से लोग घरों में कैद हैं। तो कुछ लोग इस वायरस को गंभीरता से न लेकर लॉकडाउन के बावजूद भी सड़कों पर दिखाई रहे हैं। वहीं दूसरी ओर डॉक्टरों, पुलिस प्रशासन के साथ देश के लाखों जिम्मेदार लोग कोरोना को मात देने के लिए घरों से बाहर निकले हुए हैं। संघ के स्वयंसेवक और दायित्ववान कार्यकर्ता अपने घरों से बाहर निकलकर गली-मोहल्लों में घूमकर लोगों को कोरोना के खिलाफ कैसे लड़े। इसके लिए जागरूक कर रहे हैं। कोरोना वायरस महासंकट की अभूतपूर्व त्रासदी से निपटने के लिए संघ ने जिला स्तर पर पावर सेंटर और हेल्पलाइन प्रारंभ की है। इस पूरे महाअभियान की मॉनिटरिंग सरकार्यवाह भैयाजी जोशी खुद कर रहे हैं। उन्होंने सेवा प्रकल्पों का नेटवर्क देश के प्रत्येक जिले और तहसील में मजबूत करने के लिए 30 वर्ष से अधिक समय कठोर परिश्रम और समर्पण के साथ दिया है। वे संघ के गैर राजनीतिक किस्म के ऐसे प्रचारक माने जाते हैं जिनकी दिलचस्पी सामाजिक सेवा-कार्यों में अधिक है। संघ के एक लाख से अधिक सेवा प्रकल्पों को खड़ा करने का श्रेय भैयाजी को जाता है।
संघ भारत की सेवा-संस्कृति एवं संस्कारों जीवंत करने का एक गैर-राजनीतिक आन्दोलन है। सेवा-भावना। उदारता। मानवीयता एवं एकात्मकता संघ की जीवनशैली एवं जीवनमूल्य हैं। संघ के अनुषांगिक संगठन सेवा भारती और सेवा विभाग की कार्य योजना दिनों-दिन गंभीर होती स्थिति के बीच राहत की उम्मीद बनी है। इस कार्य-योजना में कोरोना वायरस से निपटने के लिए जनता की मदद की जा रही हैं। इनमें स्वेच्छा से लॉक डाउन का पालन करवाना। जिला और स्थानीय प्रशासन की मदद करना। तथा अपने मोहल्ले और बस्ती में जिस भी प्रकार की मदद की आवश्यकता हो वह पूरी तत्परता से करना। शामिल है। सनद रहे 22 मार्च से पूर्व संघ की देश भर में 67 हजार से अधिक शाखाएं नित्य प्रतिदिन लगती थी। एक शाखा के प्रभाव में 20 से 25 हजार की आबादी आती है। प्रत्येक शाखा के प्रभाव में कम से कम 100 से 150 तक प्रशिक्षित स्वयंसेवक होते हैं। इन स्वयंसेवकों को संकट के समय मदद करने का भी प्रशिक्षण होता है। संघ के अलावा अन्य 36 अनुषांगिक संगठन भी अपने-अपने स्तर पर तय योजना के अनुसार सेवा कार्यों में लगे हैं। कई बस्तियों में 15 दिन के लिए परिवार को कार्यकर्ताओं ने ही गोद ले लिया है । संघ के आह्वान पर कुटुंब शाखा में 50 लाख से ज्यादा स्वयं सेवको ने संघ की प्राथर्ना कर भारत माता को याद किया । जो विद्यार्थी हॉस्टल अथवा गेस्ट हाउस में फंसे हैं। उनकी व्यवस्था भी स्वयंसेवक कर रहे हैं। किसी परिवार में दवाई की आवश्यकता हो या अस्वस्थता हो तो भी उस समय पूर्ण रूप से उनको हर चिकित्सीय सुविधा प्रदान कराई जा रही है। इस महासंकट एवं आशंकाओं के रेगिस्तान में तड़पते हुए आदमी के परेशानी एवं तकलीफों के घावों पर शीतल बूंदे डालकर उसकी तड़प-शंकाओं को मिटाने का अभिनव उपक्रम संघ कर रहा है। गर्व की बात है कि संघ के कई कार्यकर्ताओं ने  खुद ही अपने आप ही कई बस्तियों को गौद लिया है । संघ के स्वयं सेवको ने सरकार के आह्वान से पहले ही सरकार को आर्थिक सहयोग देने और सरकार के साथ खड़े होने का पर्ण लिया है । हिमाचल प्रदेश में एक आह्वान पर संघ के अनुषांगिक  हिमाचल प्रदेश महाविद्यालय शेक्षिक संघ और हिमाचल प्रदेश शिक्षक महासंघ ने मुख्य मंत्री राहत कोष में लाखो का दान दे दिया था । संघ के आह्वान पर शाखाओं में जाने वाले सभी स्वयं सेवको ने कोविद 19 फण्ड में दान देने का पर्ण लिया । जिन निश्चित ही संघ के प्रयत्नों से भारत में कोरोना का परास्त होना ही होगा।

✍️ डॉ मामराज पुंडीर
विशेष कार्य अधिकारी
शिक्षामंत्री हिमाचल सरकार
mamraj.pundir@rediffmail.com
9418890000, 9418014586