Saturday 8 February 2020

पिता के झोले में गाँव

पिता जी जब इस बार गाँव से
कुछ दिन बाद लौटकर शहर पहुँचे
मैं बड़े ध्यान से देखता रहा चेहरे पर
झुर्रियों की दम तोड़ती वेदना को
पलायन के दर्द के महासागर को
इस बार पिता अपने झोले में
ठूँस लाए थे पूरा का पूरा गाँव
जैसे किसी आज़ाद पन्छी को
अपनी पुरानी यादों के साथ
हमेशा के लिए पिंजरे में रहना है
पिता  साथ बाँध लाए  थे कसकर
गाँव को अपने झोले में भीतर तक
पिता के झोले में लहसुन,अदरक था
लाल मिर्च ,हल्दी की सूखी गाँठें और
हरे धनिये का जिक्र बखूबी था
सर्दी,खाँसी और जुकाम के लिए शहद था
बच्चे और बड़ों के लिए अमरूद
के अलग-अलग बेशुमार स्वाद थे
बस इतना ही नहीं था झोले में
यह तो सिर्फ झोले का ऊपरी सामान था
झोले के बीच में सत्तू की गाँठ थी
मौजी के घराट का मक्की का आटा और 
झोले में पुदीने की खुशबू सरोबार थीं
सबसे नीचे झोले में अरबी के पत्ते और
पुरानी कागज़ में देवता के चावल थे
जिन्हें झोला ज़मीन पर रखने से पहले ही
पिता ने कई बार माथे से लगाकर
रख दिए थे रक्षा के लिए पूजा के स्थान पर 
यह सब देखकर मैं सोच में पड़ जाता हूँ
सोचता हूँ मैं कैसे बचा पाऊंगा बच्चों के लिए
पिता के झोले में गाँव के सभी औषधीय गुण
कैसे संभाल कर रखूँगा गाँव को 
बढ़ते औद्योगीकरण की रफ़्तार के बीच
कैसे बचा पाऊँगा समुद्र की आग में
पहाड़ी नदियों की रिश्तों की नमी को
बहुत कठिन है शहर की आपा-धापी में
गाँव की तस्वीर को संजो कर रखना
सोचता हूं जिन खूबसूरत घरों में 
कुदाल रखने के लिए जगह नहीं है
कितना मुश्किल है वहाँ गाँव को खोजना
पिता की झुर्रियों की सलवटों पर एक बार
नज़र दौड़ाते हुए मैं उस व्यापारी की तरह
खामोश हो जाता हूँ जिसे पलटन बाजार में
अच्छे ख़ासे दाम मिलने के बावजूद भी
जेबकतरों का शिकार होना पड़ा
मैं कैसे बचा पाऊँगा शहरी भीड़ में
अपने खीसे की फटी जेब में पिता का गाँव
जिसे बसीयत की तौर पर झोले के भीतर
सौंप गए थे पिता मेरे लिए
मेरी भावी पीढ़ी के लिए।
                                    
✍️ डॉ० जय चन्द “उराड़ुवा”
                                     

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