Thursday 13 February 2020

पत्थरों की मण्डी सतौन

पत्थरों की मण्डी सतौन
एशिया के मानचित्र पर
सबसे बड़ी पत्थरों की मण्डी है
पत्थरों की मण्डी सतौन/
सिरमौर के राजवंशों के
पर्यटन का प्रमुख स्थान था
गिरिपार का प्रथम चरण सतौन/
सजती थीं यहाँ पर कभी
राजाओं के घोड़ों की पाँत/
कभी भ्रमण करती थीं रानियां
और करती थीं अपने सोलह श्रृंगार/
गिरिगंगा पहाड़ों से उतरकर 
उतारती थी अपने थकान के जूते और
खोलती थीं अपनी भीगी पलकें/
बाहें फैलाकर करती थी विश्राम कई पहर
लकड़हारों,पथिकों और चरवाहों को
मिलता था यहीं पर ढ़ेर सारा सुकून/
गिरिपार का पहला पड़ाव जहाँ
पहाड़ों से उतर कर गुज्जर
अपनी मवेशियों के साथ गुजारते थे
कई शरद जाड़ों की लम्बी काली रातें/
धान की क्यारियों से लबालब हरीतिमा
मक्का,कालजीरी और अदरक की खुशबू
बिखेरती थी अपना औषधीय स्वाद/
यहीं से शुरू होती थीं
विकासनगर हाट के लिए
घोड़ों और खच्चरों की जमात/
धीरे-धीरे सब बदल गया
राजवंशों के ठाठ-बाट के तमाम किस्से/
सतौन की हरियाली की मखमली चादर
नटनी के शाप के साथ
गिरिगंगा में दफन हो गई/
मखमली हृदय-सा सतौन/
अंग्रेजी का ‘स्टोन’ हो गया
औद्योगिक क्रांति के खूनी जबड़ों ने
हस्तिनापुर के इशारे पर/
पहाड़ों को तोड़-तोड़ कर 
छलनी कर दिया इसका बदन
इसकी छाती और बदन पर
पत्थर ही पत्थर उग आये/
सोचो ! जब ज़मीन पर
फसल के बदले उगेंगे पत्थर
जीवन तब कितना कठोर होगा
जमीन पर पत्थर का उगना
जीवन का पाषाण होना है
पत्थरों की मण्डी के बाज़ार 
सजते रहे दिन-रात/
अर्धविकसित मानसिकता के शिकार
बबूए करते रहे पहरेदारी
हस्तिनापुर के इन दुकानों की /
विकास के नाम पर धीरे-धीरे
सब पत्थर होता गया/
आदमी के सपने काठ होते गये
अपनी झूठी शान-ए-शौकत और
देसी शेखी के लिए
बनाते रहे हम बनावटी हँसी/
हम खिलखिलाकर हँस रहे हैं
अपनी बिगड़ती मानसिकता पर
हम ऐसे समय में जी रहे हैं
जब हमारा सारा ध्यान 
कमीज़ की क्रीज़ पर हैं/
उस पर पड़ी धूल पर नहीं
नीलाम होती संस्कृति की 
अस्मिता पर भी नहीं/
समय बहुत कम बचा है
रंगमंच का पर्दा गिर रहा है
हमारी मानसिकता पत्थर हो गई हैं
और हम तालियाँ बजाकर 
अपने जिन्दा होने का एहसास दे रहे हैं।
                          
✍️ डॉ० जय चन्द ‘उराड़ुवा’

5 comments:

  1. बहुत ही सुंदर चित्रण किया है आपने

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  2. बहुत बहुत सुंदर

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  3. सुपर से ऊपर जीजा जी

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