Monday 7 September 2020

भारतीय संस्कृति के उन्नायक : प्रो.प्रदीप के. शर्मा



भारतीय संस्कृति के उन्नायक :  प्रो. प्रदीप के. शर्मा  
                                                -डॉ. मुकेश कुमार
               साहित्यकार :  प्रो. प्रदीप के. शर्मा

भारत भूमि पवित्र भूमि है। भारत देश मेरा तीर्थ है। भारत में सर्वस्व है; भारत की पुण्यभूमि का अतीत गौरवमय है, यही वह भारतवर्ष है, जहाँ मानव प्रकृति एवं अन्तर्गत के रहस्यों की जिज्ञासाओं के अंकुर पनपे हैं।
किसी भी साहित्यिक या वैचारिक वातावरण सदैव उसके परिवेशगत पर्यावरण से रचनात्मक ऊर्जा ग्रहण करता है। परिवेशगत पर्यावरण का मूलाधार संस्कृति होती है। संस्कृति शब्द सम् उपसर्ग के साथ संस्कृति की (डु) कृ (त्र्) धातु से बनता है, जिसका मूल अर्थ साफ या परिष्कृत करना है। संस्कृति शब्द का प्रयोग दो अर्थों में होता है, व्यापक अर्थ में उक्त शब्द का अर्थ नर-विज्ञान में किया जाता है, जिसमें संस्कृति सामाजिक परम्परा से अर्जित व्यवहार है और संकीर्ण अर्थ में संस्कृति उन गुणों का समुदाय है जो व्यक्ति को परिष्कृत करते हैं।’’1

‘संस्कृति’ जीवन जीने की एक पद्धति का नाम है। संस्कृति और सभ्यता दो अलग-अलग शब्द हैं। सभ्यता वेशभूषा, रहन-सहन, खान-पान आदि पक्षों तक ही सीमित है जबकि संस्कृति चिन्तन से लेकर जीवन-व्यवहार एवं मानवीय संवेदना से लेकर समष्टिगत एकता जैसे पक्षों को स्पर्श करती है। सभ्यता वह है जो हमारे पास है, संस्कृति वह है जो हम स्वयं हैं।
प्रो. प्रदीप के. शर्मा जी का जन्म 1 अगस्त 1964 ई. को गोहाटी (असम) के अहिन्दी क्षेत्र में हुआ। उन्होंने हिन्दी-साहित्य के प्रति गहन प्रेम है और उनके पैतृक संस्कारों की छाप भी उनके व्यक्तित्व पर पड़ी। इसी परिणाम स्वरूप उनके जीवन-आदर्श स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी आदि का प्रभाव भी उनके व्यक्तित्व पर पड़ा जो हिन्दी सेवा का ध्वज अहिन्दी क्षेत्र में लहरा रहे हैं। यह भी एक भारतीय संस्कृति का मुख्य अंग ही नहीं आत्मा है। प्रदीप के. शर्मा जी राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी द्वारा लिखी गयी भारत-भारती रचना की इस पंक्ति से बहुत प्रभावित है-
मानस-भवन में आर्यजन जिसकी उतारे आरती-
भगवान! भारतवर्ष में गूँजे हमारी भारती।
हो भद्रभावोद्भाविनी वह भारती हे भगवते!
सीतापते! सीतापते!! गीतामते! गीतामते!’’ 2
प्रो. प्रदीप के शर्मा जी का जीवन सरल-सहज व परोपकारी है। उनकी एक ही सोच है-‘‘नेकी कर दरिया में बहा’’ वे सच्चे देशभक्त, हिन्दी-प्रेमी, लोक सेवक, भाषा प्रेमी, समाज में राष्ट्र प्रेम की शंखध्वनि का स्वर गुँजाने वाले हैं। उनके जीवन पर महाकवि ‘हरिऔध’ जी की इस पंक्ति का गहरा प्रभाव दिखाई देता है-
प्यारा है जितना स्वदेश,
उतना है प्राण प्यारा नहीं।
प्यारी है उतनी न कीर्ति,
जितनी उद्धार की कामना। 3
प्रो. प्रदीप के. शर्मा जी एक आदर्श गुरु हैं। वो हमेशा गुरु और शिष्य के पवित्र रिश्ते को महत्ता देते हैं। उनका मानना है कि समाज में ऐसे आचार्य (गुरु) की जरूरत है, जो व्यास जी के तुल्य हों, जो लोहे के समान बुरे व्यक्तियों को भी स्वर्ण में बदल दे। अर्थात् सबके जीवन में अच्छे संस्कार भर दें। हमें ऐसे आचार्य की जरूरत है जो समाज में माया के लोभ से अपनी प्रतिष्ठा को न खोयें। अपने कर्म और धर्म को पैसे के समान न समझें, उसकी तुलना पैसे से न करें। वही गुरु (आचार्य) समाज के लिए उपयोगी होगा। क्योंकि वह स्वयं भी ऐसे ही हैं। महाकवि हरिऔध की इन पंक्तियों का प्रभाव उनके जीवन पर व्यापक दिखाई देता है। वो जो कहते हैं वो करते भी हैं-
गुरु चाहिए हमें ठीक पारस के ऐसा।
जो लोहे को कसर मिटा सोना कर डाले।।
टके लिए धूल में न निज मान मिलावे।
लोभ लहर में मूल न सुरुचि सुरीति बहाले।।
हमें चाहिए सरल सुबोध पुरोहित ऐसा
जो घर-घर में सकल सुखों की सोत लगावे।।4
भारतीय संस्कृति बहुत व्यापक और विस्तृत है। भारतीय संस्कृति की गौरव-गाथा उज्ज्वल एवं महान है। सृष्टि की अन्य संस्कृतियों में भारतीय संस्कृति महानतम है। इसमें मानवतावाद और विश्व बन्धुत्व की भावना निहित है। यह विश्व बन्धुत्व एवं ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’की भावना से ओत-प्रोत है। प्रो. प्रदीप के. शर्मा जी के जीवन पर महाकवि गोस्वामी तुलसीदास जी की रामचरितमानस की इन पंक्तियों का प्रभाव दिखाई देता है-
‘‘प्रातः काल उठि कै रघुनाथ। मातु पिता गुरु नावाहि माथा
मातु-पिता अग्या अनुसरहीं।।’’5
‘‘प्रत्येक राष्ट्र की निजी संस्कृति होती है जो उसको एक सूत्र में पिरोये रखती है। रीति-रिवाज, साहित्य, शिक्षा, कला, रहन-सहन, जीवन-दर्शन एवं मान्यताओं का समाहार संस्कृति के अन्तर्गत हो जाता है। संस्कृति मानव जीवन वृक्ष का सुगन्धित पुष्प है।’’6
‘‘ संस्कृति विचार एवं ज्ञान दोनों व्यावहारिक एवं सैद्धांतिक का समूह है, जो केवल मनुष्यों के पास ही हो सकता है। संस्कृति उन तरीकों का कुल योग है जिनके द्वारा मनुष्य अपना जीवन व्यतीत करता है। जो सीखने की प्रक्रिया द्वारा एक से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होता है।’’7
मानव संस्कृति का इतिहास इस बात का साक्षी है कि किसी वस्तु अथवा क्रिया का मूल्यांकन लोकहितैषणा एवं लोक निर्माण के निषक पर होता रहा। वह व्यक्ति साधु मान लिया गया जिसने परहित के लिए अपने सारे सुखों और ऐश्वर्यों का उत्सर्ग कर दिया, वह वस्तु सुन्दर बन गयी जिसका उपयोग लोक-जीवन को निर्विघ्न बनाने में हो सका और वह क्रिया धन्य हो गयीं जिससे लोक हृदय में सद्वृत्तियों का उन्मेष हुआ। किसी व्यक्ति के लिए इस निकष पर खरा उतरना तभी सम्भव है जब वह ‘यथा चितं तथा वाचो यथा वाचस्तथा क्रिया को अपने जीवन में अंगीकार करे। अपनी जीवन सत्ता, अर्जित महत्ता तथा उपलब्ध ऐश्वर्यता को जो समष्टि पर लुटा दे, वही मनुष्य महात्मा अथवा ऋषि कहा जाता है, इसके विपरीत, जो समाज की विभूति को लूटताहै वह असाधु तथा दस्यु कहलाता है। राम-रावण, कृष्ण-कंस तथा गांधी-गोडसे के बीच यही विभाजक रेखा थी। इसी प्रसंग में हमारी तो प्रतीति यह है कि व्यक्ति के नामार्थक गुण उसमें किसी न किसी रूप में अवश्य उत्पन्न हो जाते हैं। प्रो. प्रदीप के. शर्मा का नाम ऐसा ही है।
प्रो. प्रदीप के. शर्मा जी माँ भारती के कण्ठहार हैं। जनता के कौस्तुभ मणि हैं। भारत माँ के अनुपम रत्न हैं। इनका जीवन सन्त का जीवन है। निर्मोही, त्यागी, परोपकारी, विनम्र, सदाचारी, सद्भावक, शुद्ध अंतःकरण से निरभिमानी, निर्भयी, स्वाभिमानी है। वे हिन्दी भाषा के प्रेमी हैं। भाषा को ही भारत का गौरव मानते हैं। वे बाबू भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की इस पंक्ति से बहुत प्रभावित हैं-
‘निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिनु निज भाषा ग्यान के, मिटत न हिय के शूल।’’8
प्रो. प्रदीप के शर्मा राष्ट्रभाषा हिन्दी के उन्नायक हैं। राष्ट्रभाषा हिन्दी के उत्थान में उनका अग्रगण्य स्थान है। उनका श्रेष्ठतम त्याग एवं तपोमयी जीवन, सतत् निष्ठा, उत्कृष्ट साधना, सरल एवं सात्त्विक कार्य शैली, उच्च विचार, भारतीय संस्कृति के प्रति अटूट आस्था, दृढ़ प्रतिज्ञा, दूरदर्शिता, संवेदनशीलता, राष्ट्र एवं राष्ट्रभाषा, प्रेम, सहृदयता, सन्त स्वभाव, अपने सिद्धांतों और आदर्शों के प्रति दृढ़ता, संघर्षमय जीवन आदि अनुकरणीय एवं वंदनीय है। शर्मा जी राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार और अध्ययन-अध्यापन से सम्बद्ध नाना प्रकार के कार्यक्रम प्रस्तुत करते रहते हैं, वे हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित कर राष्ट्रभाषा के माध्यम से राष्ट्रीय संस्कृति के द्वारा सम्पूर्ण राष्ट्र को एक सूत्र में आबद्ध करना चाहते हैं।
‘‘हमारी राष्ट्रभाषा का असली स्रोत हमारी राष्ट्रीयता ही है, यह बात मैं जानता हूँ क्योंकि मैं इस काम में बहुत वर्षों से लगा हूँ कि हमारी आधुनिक राष्ट्रीयता के उत्थान में राष्ट्रभाषा की गहरी सक्षमता है। जिस भाषा को हमारी जनता समझ नहीं सकती उससे हमें राष्ट्रीयता की प्रेरणा कैसे मिलेगी।’’9  राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन जी के इन विचारों की छाप प्रो. प्रदीप के. शर्मा जी पर स्पष्ट रूप में दिखायी देती है।
प्रो. प्रदीप के. शर्मा जी, हिन्दी की व्याप्ति को विस्तृत करने में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं। संविधान सरकारी कामकाज, न्याय, व्यवसाय, शिक्षा, सामाजिक संस्थाओं और गैर-सरकारी कामों में हिन्दी को लाने का सर्वाधिक श्रेय आपका है। आपकी पुस्तक ‘कार्यालयी हिन्दी’सर्वाधिक लोकप्रिय है। वह प्रत्येक विद्यालयों, सरकारी कार्यालयों एवं महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों के लिए बहुत उपयोगी है। आप ने अपनी बात में लिखा भी है-‘‘कार्यालयी हिन्दी, प्रयोजनमूलक हिन्दी का ही एक उपभाग है। इसके लिए ऐसा भी कह सकते हैं-‘तेरे नाम अनेक पर तू ही है एक’।’’10
राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन जी के शब्दों में -‘‘कविता सृष्टि का सौन्दर्य है, कविता सृष्टि का सुख है, कविता ही सृष्टि का जीवन प्राण है; परमाणु में कविता है, विराट रूप में कविता है, बिन्दु में कविता है, सागर में कविता है, आकाश में कविता है, प्रकाश में कविता है, अन्धकार में कविता, सूर्य और चन्द्र में कविता, वायु और अग्नि में कविता, जल और थल में कविता, किरण और कौमुदी में कविता, मनुष्य में कविता, पशु में कविता, वृक्ष में कविता, पूरी प्रकृति में कविता है जिधर देखो कविता ही का साम्राज्य है। सारा ब्रह्माण्ड एक अद्भुत महाकाव्य है।’’11 इन विचारों का प्रभाव प्रो. प्रदीप के. शर्मा जी के व्यक्तित्व पर पड़ा। महाकवि पं. अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ जी अपने महाकाव्य ‘वैदेही वनवास’में लिखते हैं-
‘‘प्रकृति पाठ को पठन करो शुचि-चित्त से।
पत्ते-पत्ते में है प्रिय शिक्षा भरी।
सोचो-समझो मनन करो खोलो नयन
जीवन जल में ठीक चलेगी कृति तरी।।’’
जल को विमल बनाती है ये मछलियाँ,
पूत प्रेम का पाठ पढ़ाती हैं सदा।
प्रियतम जल से बिछुड़े वे जीती नहीं
किसी प्रेमिका पर क्यों आवे आपदा।।’’12
प्रो. प्रदीप के. शर्मा जी हमेशा कर्मशील ही रहते हैं। उनका चिन्तन है कि कर्म करते जाओ फल की इच्छा मत रखो। वह यही कहते हैं कि कर्म करके कर्म फल की आकांक्षा न करना, किसी मनुष्य की सहायता करके उससे किसी प्रकार की कृतज्ञता की आशा न रखना। कोई सत्कर्म करके भी इस बात की ओर नजर तक न देना कि वह हमें यश और कीर्ति देगा अथवा नहीं इस संसार में सबसे कठिन बात है। इन विचारों पर स्वामी विवेकानंद जी के इन विचारों का प्रभाव गहरा दिखाई देता है। स्वामी विवेकानंद जी लिखते हैं-‘‘गीता का केन्द्रीय भाव यह हैः निरन्तर कर्म करते रहो, परन्तु उसमें आसक्त मत होओ, संस्कार प्रायः मनुष्य की जन्मजात प्रवृत्ति होता है। यदि सब को तालाब मान लिया जाय तो उसमें उठने वाली लहर, प्रत्येक तरंग जब शान्त हो जाती है तो वास्तव में वह बिल्कुल नष्ट नहीं हो जाती।’’13
सारांश रूप में कहा जा सकता है कि बहुआयामी, पारगामी ऋतम्भरा प्रज्ञा के अनुयायी, कारयित्री एवं भावयित्री प्रतिभा के धनी सरस संत गुणग्राही प्रो. प्रदीप के. शर्मा जी का व्यक्तित्व असाधारण है। वे भारतीय संस्कृति के परम पोषक हैं, उन्होंने भारतीय संस्कृति के गहनता पक्ष पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने की प्रेरणा भारतीय आदर्शों में स्वामी विवेकानंद, रामकृष्ण परमहंस, महात्मा गांधी, राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त, पं. अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन, महामना पं. मदनमोहन मालवीय, राजेन्द्र प्रसाद व भारतीय आदर्श ग्रंथ ‘रामचरितमानस’ से मिली है। उनके व्यक्तित्व में उदारता, करुणा, विश्वकल्याण, सच्चरित्र, समानता, नैतिकता, परोपकारिता, ईमानदारी आदि विद्यमान हैं। इसी प्रकार से वे भारतीय संस्कृति के उन्नायक हैं।

संदर्भ
1.डॉ. कृपा किंजल्कम, बुन्देलखण्डी, सांस्कृतिक संदर्भ और 2.मैत्रेयी पुष्पा, बुन्देलखण्ड साहित्य संस्कृति, पृ. 100
3.मैथिलीशरण गुप्त, भारत-भारती, अतीत खंड, पृ. 9
4.सम्पा. सदानन्द साही, हरिऔध रचनावली, पृ. 151
5.वही, पद्य-प्रसून, पृ. 35
6.डॉ. मुकेश कुमार, खड़ी बोली हिन्दी के उन्नायकः महाकवि 7.हरिऔध, पृ. 94
8.डॉ. मुकेश कुमार, हिन्दी कविताः राष्ट्रीय चेतना एवं संस्कृति, सम्पादकीय 
9.वही, पृ. 315
10.आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ. 115
11.सम्पा. प्रभात शास्त्री, राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन व्यक्ति और संस्था, पृ. 356
 12. प्रो. प्रदीप के. शर्मा, कार्यालयी हिन्दी, पृ. 12
13. स्वामी विवेकानंद साहित्य, तृतीय खंड, पृ. 29-301
            ✍️लेखक    : डॉ. मुकेश कुमार
                   ग्राम-हथलाना, पोस्ट-मंजूरा
                   जिला-करनाल, हरियाणा

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