नहीं था घर में धुआं जब तलक मां ज़िंदा थी।
रौशन था मेरा मकां जब तलक मां ज़िंदा थी।
कुछ घरों से रौशनी तो अब बाहर आती नहीं।
रहते थे तब हर निशां जब तलक मां ज़िंदा थी।
मेरी बुलंदियों में उस की हर दुआ थी शामिल।
नाप लिया था आसमां जब तलक मां ज़िंदा थी।
मां के कहने पर ही तो चांद उतरता था छत पर।
मेरे ही थे वे दोनों जहां जब तलक मां ज़िंदा थी।
खील बतासे, गुड़ धानी भी बिन मांगे ही दे देना।
घर पर थी तब हर दुकां जब तलक मां ज़िंदा थी।
सुनसान राहों पर मां की सब दुआएं थी रहबर।
तब साथ मेरे था कारवां जब तलक मां ज़िंदा थी।
ख़ामोश खड़े हैं अब वे सब,जो मुझ पर चिल्लाते थे।
तब मुंह में थी सब के ज़बां जब तलक मां ज़िंदा थी।
✍️ सतीश कुमार
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