लघुकथा (चरित्र के सामने फीका इत्र) ✍️ हितेन्द्र शर्मा
अधेड़ उम्र का एक व्यक्ति छोटा सा सूटकेस उठाएं तेजी से हमारी दुकान की ओर बढ़ा और हमारे सामने आकर बैठ गया। आँखों और सर के क्षणिक अभिवादन के बाद एकाएक हम पर गुलाब एंव चंदन के इत्र का छिड़काव करने लगा। इत्र की सुगंध से चारों ओर का माहौल अचानक से बदलना शुरू हो गया और हम भी इस सुगंध में मंत्रमुग्ध से हो चले थे कि अचानक से उसने हमारे हाथों में छोटी सी शीशी थमा दी। व्यापार की इस अनोखी तकनीक के सामने हम निरुतर थे।
तभी मुस्कुराते हुए सामने से आवाज़ आयी कि "ऐ मालिक, क्या सोच रहे हो 160 नहीं तो 100 ही दे दो और 100 भी नहीं तो 60 रूपये देकर बोहनी करवा दो भाई" मुझे रोचक होती इस परिस्थिति में खामोश रहना उचित लगा। वो तपाक से बोल पड़ा कि "इतना क्या सोचना बाबूजी, 10-20 ही पकड़ा दो बाकि हिसाब वापसी में परसों हो जाएगा।" अजनबी अप्रवासी के ऐसे व्यवहार से असमंजस की स्थिति उत्पन्न होना स्वभाविक है।
मेरी खामोशी ने मन-मस्तिष्क उठ रहे प्रश्नों को पल में ही खामोश कर दिया। वास्तव में स्पष्ट आहटों की अनदेखी करना या उन्हें नजरअंदाज करना हमारा स्वभाव है। देवभूमि हिमाचल में अप्रवासी लोगों के आगमन का मकसद भले ही कुछ भी हो लेकिन हिमाचली लोगों के भोले-भाले स्वभाव, ईमानदारी, परस्पर सहयोग एंव परोपकार की भावना के कारण दुनिया का हर शख्स यहां आत्मविश्वास के साथ जीवनयापन करते हुए स्वयं को सुरक्षित महसूस करता है।
भले ही देवभूमि की विशेषताओं की दुनिया कायल हो, लेकिन वर्तमान में असंतुलन तेजी से बढ़ रहा है। वर्तमान परिस्थितियों के अनुसार सजगता, सतर्कता एंव जागरूकता अनिवार्य है। हमें अपने चरित्र की खुश्बू को बदलने की आवश्यकता नहीं बल्कि दूसरों के इत्र की महक का पारखी बनना पड़ेगा। क्योंकि देवभूमि के चरित्र के सामने इत्र की महक आज भी फीकी है।
✍ हितेन्द्र शर्मा
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