Sunday, 2 February 2020

वो वासंती मौसम

उनकी खुशबू 
अब भी ताजी है 
वर्षों से सांसों में समायी है 
जब भी चलती है
उनकी महक आने लगती है 

अब भी मंद-मुस्काती 
अधर उनकी दिखती है 
गुलिस्ता भरी चमन में 
जब कई कलियाँ आपस में 
लिपटी रहती है 

गेसूंओ में उलझी उंगली 
वसंत आने से महसूस होती है 
कली- लता से उलझती है 
आहिस्ता से कहती है 
मैं वहीं हूँ जिसे छेड़ा करते थे

वो वासंती मौसम 
भी अजीब था
पहली और आखिरी मिलन का
मिलानेवाला और
आखिरी राजेदार था

✍️ किशोर कुमार कर्ण 
     पटना, बिहार

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