Thursday, 20 February 2020

हिमाचली कहानी हिंदी अनुवाद सहित

"भला तुसां-ईं दस्सा"
                नवीन हलदूणवी

"भला आप ही बतायें"
                  नवीन हलदूणवी

असां दा ग्रां पंजराल हलदूण घाटिया च अन्ने दा घर हा।

हलदूण घाटी में हमारा गांव पंजराल अन्न का घर माना जाता था।

इसदे चौबक्खैं सत्तां-अट्ठां मीलां दीया दूरियां पर प्हाड़ सुज्झदे हे।

इसके चारों ओर सात-आठ मील की दूरी पर पहाड़ दिखाई देते थे।

उत्तर-पूर्व बक्खैं कांगड़े दी धौल़ाधार बरफू नैं ढकोइयो बड़ी छैल़ लग्गदी ही कनैं भ्यागा तिसा उप्पर सीरदा सूरज असां दे मने जो मोह्-ई लैंदा हा।

उत्तर-पूर्व की ओर सुदूर कांगड़ा की धौलाधार वर्फ़ से लदी हुई दुल्हन सी लगती और उस पर उगता हुआ सुबह का सूर्य मन को मोह लेता था।

मन इंह्यां झूमदा जिंह्यां सुरगे दे हुलारे हुंदा लेआ करदा।

मन ऐसे झूमता जैसे स्वर्ग हिलोरें ले रहा हो।

इसा धारा टप्पी करी हर साल सिआल़े दे दिनां च चंबा घाटी च रैह्णे ब्हाल़ा नाथो गद्दी अपणें परुआरे कनैं भेड्डां लेइयै असां दे ग्रांएं च पुजी जांदा हा।

इसी धार के साथ चंबा की वादियों में रहने वाला नाथो गद्दी सर्द मौसम में अपने परिवार और पशुधन के साथ हमारे गांव में हर साल पहुंच जाता था।

तिद्दे परुआर च चार माह्णु हे,सैह् कनैं तिद्दी लाड़ी,तिसदा मुन्नू कनैं मुन्नी।

उसके परिवार में चार जीव वह,पत्नी, लड़की और लड़का थे।

नाथो दा टब्बर तिद्दे इशारे ते चलदा हा।

नाथो का परिवार उसके इशारे पर चलता था।

सैह् सब्बोई भेड्डां चारी करी अपणियां जिंदगिया कट्टा हे करदे।

भेड़ें चरा कर जीवन जीना ही उन सबकी जिंदगी थी ।

 असां सब्बो ग्रां दे छोह्रू हर रोज संझा-भ्यागा नाथो ब्हाल पुजी जांदे हे।

हम सभी गांव के बच्चे सुबह-शाम नाथो के पास पहुंच जाते थे।

असां तिसजो गद्दी मित्तर गलांदे हे कनैं तिसदे मुकाबले च सैह् स्हांजो मता प्यार हा करदा।

हम उसे गद्दी मित्र कह कर पुकारते और बदले में वह हमें बहुत प्यार करता था।

भौंएं सैह् अनपढ़ हा अपर तिद्दा दमाग स्हांजो ते खरा हा।

चाहे वह अनपढ़ था पर उसका दिमाग बड़ा तेज था।

सैह् स्हांजो कदी-कदी कवित्तां जोड़ियै सुणांदा हा कनैं भिरी आक्खदा भई! तुसां बी कोई टोटका सुणा$।

कभी-कभी वह हमें कविताएं जोड़ कर सुनाता और हमें भी कविताएं सुनानें को कहता था।

         इक्क दिन स्हाड़े इक्कसी साथियैं बी एह् टोटका तिसजो सुणाया-
          "गद्दी आया,गद्दी आया,
           भोल़ा-भाल़ा गद्दी आया।
          बांक्का चोल़ू-टोप्पू पाया,
           अप्पू  कन्नैं  भेड्डां  लाया।
          सौह्णा-बांक्का  नूर  पाया,
          प्हाड़े दा एह् राजा आया।"

एक दिन हमारे एक साथी ने भी उसे कविता का एक टोटका सुनाया-.....
           "गद्दी आया , गद्दी आया,
            भोला-भाला गद्दी आया।
             सुंदर चोला-टोपी पाया,
            अपने साथ भेड़ें लाया।
             बढ़िया-बांका नूर पाया,
            पहाड़ों का राजा आया।"

    टोटका सुणियैं सैह् मता भारी खुस होया कनैं तिन्नी असां दे साथिये जो अग्गैं लिक्खणे तांईं बोल्लेया।

      टोटका सुन कर वह बहुत ही प्रसन्न हुआ और हमारे उस साथी को और भी आगे लिखने को कहा।

उस दिने तेई स्हाड़े तिन्नी साथियैं बी प्हाड़ी भास्सा च -ई टोटके लिक्खणा सुरू करी दित्तेयो हन।

उसी दिन से हमारे उस साथी ने भी अपनी भाषा में टोटके लिखना शुरू कर दिये हैं।

             भौंएं नाथो हुण जबरा होई गेआ हा अपर जाल्हू सैह् गल्लां करदा तां तिसदा मुखड़ा फुल्लां सांईं खिली पौंदा हा।

           नाथो चाहे बूढ़ा हो चुका था पर बात करते हुए उसका चेहरा फूल की भांति खिल उठता था।

सैह् स्हाड़े बगै़र कनैं असां तिसदे बग़ैर इक्क दिन बी नीं गुज़ारी सक्कदे हे।

वह हमारे बिना और हम उसके बिना एक भी दिन अकेले नहीं गुज़ार सकते थे।

अपर सैह् तां कुदरत दा पुजारी कनैं पुराणे ख्यालां च रम्मेयां लकीरा दा फ़कीर हा।

पर वह कुदरत का पुजारी और पुराने विचारों मेंं रमा हुआ लकीर का फ़कीर था।

 अज्ज तौं दस साल पैह्लां जाल्हू सैह् सिआल़े दीया रुत्ता कट्टियै अपणे घरे जो जाणा लग्गा तां असां तिसजो बोलणा लग्गे कि भई!तू पलैं-पलैं जाणे-औणे छड़ी दे कनैं इत्थू-ई रैह्णा लगी पौ।

आज से दस साल पहले जब वह सर्द ऋतु काट कर अपने घर को लौटने लगा तो हम सबने उसे आने-जाने से छुटकारा पाकर यहीं रहने को कहा।

अपर स्हाड़ियां गल्लां सुणियैं तिद्दा मुखड़ा सिओउए सांईं लालोलाल होई गेआ कनैं तिन्नी गलाया--"भई!तुसां मूरख हन।दस्सा!अपणी जिंमीमाता जो कुण छड्डदा ऐ?जींदैं जी धरत नीं छडोई सक्कदी ऐ।मिंजो तां जिंमीमाता सुरगे ते बी बध प्यारी ऐ।"

परंतु हमारी बात सुनकर उसका चेहरा गुस्से में सेव की भांति लाल हो गया और उसने कहा--"आप मूर्ख हैं।भला कोई अपनी जन्मभूमि जीते जी छोड़ता है।मुझे मेरी जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर प्यारी है।"

           एह् गल्ल गलाइयै सैह् अप्पू अपणे परुआरे कनैं भेड्डां लेइयै अपणे घरे जो चली गेआ।

यही बात कहकर वह अपने पशुधन और परिवार सहित घर को लौट गया।

 अज्ज सैह् सिआल़ा ठण्डू जो लेइयै इत्थू आई गेआ ऐ कनैं स्हाड़ा ग्रां पंग्गे डैम्मे दीया झीला दी छात्तिया हेठ दबोई गेआ ऐ।

आज फिर से सर्द ऋतु लौट आई है और हमारा गांव पौंग बांध के जलाशय में समा चुका है।

अपर सैह् गद्दी मित्तर स्हांजो हुण नीं मिलदा।

परंतु अब वह गद्दी मित्र हमें नहीं मिलता।

पता नीं हुण सैह् कुथू रैंह्दा ऐ?

पता नहीं अब वह कहां रहता है?

अपर स्हांजो तिद्दी याद भुल्ली नीं सक्कदी।

परंतु हमें उसकी याद सताती रहती है।

सैह् गलांदा हा--"भई! जिंमीमाता जो छड्डणा मूरखां दा कम्म ऐ।"

वह कहा करता था कि जन्मभूमि को छोड़ना मूर्खों का काम है।


 अज्ज असां अपणी जन्म भू: छड्डी दित्तीयो कनैं डंडा-डेरा चुक्कियै होरथी बस्सी गेओ हन।

आज हम अपनी जन्मभूमि छोड़ डंडा-डेरा उठा कर कहीं और बस गये हैं।

अपर असां सारे भारते जो अपणी जन्म भू: मन्नदे हां कनैं इत्थू दे माह्णुआं जो सुक्ख देणा अपणा धर्म समझदे हां।

परंतु हम सारे भारत को अपनी जन्मभूमि और यहां के लोगों को सुख देना अपना धर्म समझते हैं।

                            जे असां दे घर-घराट,नेड़-पड़ेस,खूह्-भणैंद,डल़-भाटियां,नात्ते - रिस्ते छड्डणे ते स्हाड़े देस्से दा भला होई सक्कदा ऐ तां असां अपणेआप्पे जो नाथो गद्दी मित्तर सांईं मूरख कैंह् मन्नियें?

यदि हमारे घर-घराट,नेड़-पड़ेस, खूह्-भणैंद, रिश्ते-नाते छोड़ कर कहीं दूर बसने से हमारे देश का भला हो सकता है तो हम अपने आप को नाथो गद्दी की तरह मूर्ख क्यों मानें?

भला तुसां-ईं दस्सा-भई! मूरख कुण कनैं इस च सच के ऐ ?

भला आप ही बतायें - भाई!मूर्ख कौन और इसमें सत्य क्या है?
           

✍️ नवीन हलदूणवी

काव्य - कुंज जसूर-176201,
जिला कांगड़ा, हिमाचल प्रदेश।

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