Monday, 3 February 2020

सड़क

सुबह उठते ही
चुंधिया ग ई आंखें
देख कर बर्फ की चादर
दौड़ पड़ा मैं बिस्तर छोड़
रखने बर्फ पर पहला कदम
लेकिन यह क्या
बर्फ  की परत पर
पहले से ही मौजूद थे
दूर तक 
छोटे बड़े जूतों के निशान
मैं  हतप्रभ
और बर्फ  की चमक में
हंसी थी मेरे पिछड़ने के लिए

रोज चलता हूं मैं
मीलों काली पक्की सड़क
पर उसने कभी तंज नहीं  किया
मेरे पिछड़ने पर
न कभी सहेजे साक्ष्य
अनवरत् दौड़ में
थककर बैठा जब
किसी मोड़ पर
देखा पीछे मुड़ कर
बहुत से लोग मेरे पीछे थे
मेरी ही दौड़ में शामिल
मेरी ही तरह 
आगे निकलने निकलने को बेचैन
मेरी ही तरह
आगे निकल चुके लोगों पर
आक्रोशित
समझाती आखिर कितनों को
सडक

✍️ नरेश दयोग 

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