कैसे राब्ता रहेगा ता-उम्र ज़िंदगी से।
हवा ये कितनी तंग है हर आदमी से।
कैसे सिमट गया सब एक कमरे में।
जो कुछ बिखरा था ये इक सदी से।
ये नहीं है खेल कोई बच्चों का यहां।
उभरने में वक्त लगा है हर त्रासदी से।
है ज़ंज़ीर ए ज़ीस्त उसी के हाथों में।
कौन मरता है यहां अपनी खुशी से।
मुंह के बल गिरा है ये इतिहास देखो।
जब भी उलझा है आदमी प्रकृति से।
कलाम, अटल, रविन्द्र या और कोई।
सीख लो कभी किसी की जीवनी से।
बनाना होगा एक मुख्तलिफ नक्शा।
या फिर यूं ही जीना होगा बेबसी से।
✍️ सतीश कुमार
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