आधुनिक युग में शिक्षा के नए दौर और नये प्रारूप में बहुत कुछ पीछे छूटता जा रहा है। एक तरफ़ आज प्रत्येक अभिभावक अपनी संतान को बेहतर शिक्षा प्रदान करने के लिए निजी विद्यालयों की और रुख कर रहे है और शिक्षा प्राप्ति का साधन स्थानीय बोलियों और हिन्दी भाषा को छोड़कर अंग्रेजी को बेहतर विकल्प मान रहे हैं,के चलते अपनी पुरानी संस्कृति और पुरातन इतिहास जो केवल मात्र मौखिक रूप में जिंदा है को भूलता जा रहा है। हमारे पहाड़ी प्रदेश में बहुत से गीत और बहुत सारी गाथाएं और (कढ़ासणी) देव पूजा से संबंधित पंक्तियाँ और चिकित्सीय पद्धति जो स्थानीय बोली में ही जीवित हैं वह सबकुछ विलुप्त होती जा रही है। हिमाचल में लेखकों की बहुलता होने के उपरान्त भी इस दिशा में बहुत कम लोग ही इस साहित्य और इस प्राचीन धरोहर के संरक्षण में कदम बढ़ा रहे हैं। क्षेत्रीय बोलियों में महाभारत से लेकर रामायण और पौराणिक गाथाओं को छंदोबद्ध करके तथा राजाओं के शासन, प्रेम तथा उस वक्त की सामाजिक न्यायिक और आर्थिक परिस्थितियों का वर्णन मिलता है जिसमें आंचली गीधा झमाकड़ा जैसे अनेक पारंपरिक गीत व विवाह गीत आदी प्रमुख है।उपरी हिमाचल में दीपावली, शिवरात्रि कृष्ण जन्माष्टमी जैसे धार्मिक त्योहारों पर अनेक प्रकार के गीत गाए जाते थे वह आज धीरे धीरे विलुप्त होने की कगार पर खड़े हैं। बुजुर्गों द्वारा कही जाने वाली पहाड़ी कहावतें जो गूढ़ रहस्य को उद्घाटित करती थी इस नए दौर में विलुप्त होती जा रही है जो समाज के लिए शुभ संकेत नहीं है। आज विद्यालय में पढ़ने वाले छात्र से हिन्दी में गणना करने को कहा जाए तो यह संभव नहीं होगा। आज जरूरत है कि पहाड़ी बोलियों कि संरक्षण व संवर्धन किया जाए।
✍️ राजेश सारस्वत

No comments:
Post a Comment