एक आरजू थी तेरी, तलब नहीं
वो भी कल तक थी, अब नहीं।
दीवाना हूँ, दीवाना ही रहने दे
मेरा कोई नाम-ओ-नसब नहीं।
अब नाम तेरा मैं कैसे लूं
ज़ख़्म खुलते हैं, लब नहीं।
तकसीम मुझको क्यों करते हो
मैं आदमी हूँ, मज़हब नहीं।
तुम किस से निगाहें करते हो
मुझे कुछ भी मतलब नहीं।
जब चाहो जान ये ले लो तुम
गिरफ़्त में तेरी मैं कब नहीं।
ये हर दौर में होता आया है
कुछ नया नहीं, कुछ अजब नहीं।
तब़्दीली इतनी भी क्या कर ली है
कि ज़रा भी बाकी अदब नहीं।
✍️ Rahul Boyal
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