चुप रहने से क्या
चुप हो जाएगी भावनाएं
चुपचाप सुलगती लकड़ी की तरह
राख हो जाएगी
राख हो जाएंगे क्या
इच्छाओं के हरे-भरे जंगल
हरियाली क्या सुलग कर
खाक हो जाएगी
उंगलियों के चुप होने से क्या
सितारें चुप हो जाएगी
चटक जाएंगे तार
सरगम टूट जाएगी
फुर्र हो जाएंगे गीतों के पँछी
नदियों के नाद
ध्वनियों के समुद्र में
डूब जाएगें
चुप रहने से क्या
स्थिर हो जाएगी
हमारे मन की पृथ्वी
अपनी गतियों के साथ
रुक जाएगें
हमारे सुख-दुख के दिन-रात
नहीं बदलेंगे हमारे चेहरे के मौसम
अंतर के क्रोड़ में कैद हो जाएगी
ऋतुओं की रौनक
चुप रहने से
कुछ भी चुप नही होता
न प्रारब्ध की प्रवृति
न कर्म की कृति
न भाग्य की सृष्टि
अपने संवेद से पूछो
चुप्पी के मन में
मेरी उपस्थिति।
✍️ दिनेश शर्मा
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