वह साँप-सीढ़ी नहीं खेलता यह नाम ज़ाहिर करता है कि कविता मनुष्य द्वारा रची गयी कृत्रिमता का विरोध करती है। साँप- सीढ़ी का खेल एक जीवन संघर्ष की तरह तो है मगर उसमें हिंसात्मक प्रवृति और समस्याओं को लड़े बिना लांघ जाने को ही महत्त्व दिया गया है। कविवर गणेश गनी जी उक्त शीर्षक कविता में प्रकृति के साथ रमने के खेल को विशिष्टता प्रदान करते हुए रचनात्मकता की ओर इशारा करते हैं। शीर्षक कविता को ज़रा पढ़ा जाये-
वह जब चुप रहता है
उसके चेहरे पर उस वक्त
चाँद आराम कर रहा होता है।
वह जब हँसता है
उसकी आँखों से
तितलियाँ उड़ रहीं होतीं हैं।
वह जब जब रूठता है
ऋतु बदल जाती है तब तब।
जब लगता है कि
वह कुछ नहीं कर रहा
दरअसल तब वो इन्द्रधनुष पर
प्रत्यंचा चढ़ाने के बारे में सोच रहा होता है।
उसका खेतों में टहलना अजीब है
वह पेड़ों से बात करता है
पत्तों से हरियाली माँगकर ज़ेबें भरता है
फूलों को मशवरा देता है।
उसके अपने खेल हैं
वह साँप-सीढ़ी नहीं खेलता
और न ही शिकार
जब लगता है कि
वह कागज़ के जहाज उड़ा रहा है
उस क्षण वह हवा में जाकर
घूमती पृथ्वी को निहार रहा होता है।
गणेश गनी जी की कविताओं में हमारे रिश्तों, सम्बन्धों और उनके मध्य के अन्तर्द्वन्द्वों एवं स्मृतियों को इतनी शालीनता से रचा गया है कि कहीं भी वो वाचाल नज़र नहीं आते। रिश्तों का मर्म पकड़ने में कवि हर जगह कामयाब रहे हैं। उनकी कविताओं में माँ है, पिता है, दादी है, दादा हैं, सास है, बहू है।
कविता 'पार की धूप' में वक्त को आधार बनातेे हुए कवि किस तरह रिश्तों को स्मृतियों से जोड़ते हैं, यह एक बानगी देखिए-
जिसे दादी वक्त कहती है
दरअसल वे दादा के हाथ हैं
जो ऊन के धागे से बनी
रस्सी की बाट सुलझाने में
तकली को फुर फुर
हवा में घूमाने में रहते हैं व्यस्त
और आँखें........
फाट पर चरती भेड़ों पर ठहरी
वक्त को झूले झूलातीं हैं।
इसी कविता का एक और अंश है-
पुल पर चलने का हुनर
सास बता रही है नयी बहू को
साथ ही बता रही है
पुल के रग - रग की व्यथा-कथा
पुल कहीं झूलने न लग जाये
इसलिए दबे पांव चलना है पुल पर
और यह भी कि
कैसे दबे पांव चलते हैं घर के भीतर।
तमाम रचनाएँ हमारी बुनियाद को मद्देनज़र रखकर उसकी कमियों को उजागर करतीं हैं। प्रकृति से हमारे सम्बन्ध और जीवन के बहुआयाम इतने स्पष्ट तरीके से रचे गये हैं कि कुछ कविताएँ पढ़ते हुए पाठक वहीं रच-बस जाता है।
कविता 'जबकि इन्द्रधनुष तो उसकी पलकों पे रहता है!' में जो कुछ लिखा गया है, वह सम्मोहक है और जादू की पराकाष्ठा है।
एक दिन मैंने ज़िद की
कि मुझे आग और पानी
एक साथ दिखाओ
बिल्कुल गले लगे हुए
उसने मुझे कुछ इस तरह देखा कि
थोड़ी ही देर में
उसकी दोनों आँखों से आँसू बहने लगे
और जब आँखें सूखीं तो सुर्ख़ लाल थी
मैं उस ताप से पिघलने लगा।
आज जहां कविताओं में शब्दों की स्फीति और वाग्जाल की अधिकता का मिलना सहज हो गया है वहाँ गणेश जी का यह संग्रह हमारे साहित्य की बुनियादी ज़रूरत के रूप में खड़ा मिलता है।
राजनैतिक परिदृश्य को भी इस संग्रह में नज़र अंदाज नहीं किया गया है। कविता 'नारे प्रार्थनाएँ लगने लगे हैं', 'उसकी वीरगाथा' और 'यह समय नारों का नहीं हो सकता' में आज के वर्तमान हालात और उसके प्रभाव को नये बिम्बों के साथ प्रस्तुत करने का साहस किया है।
एक लकड़ी अकेले ही जल रही है
धारों पर एक गडरिया
ज़ोर की हाँक लगा रहा है
और भेड़ें हैं कि कर रहीं अनसुना
जब जीभ का हिलना बेमानी हो गया
और लगने भी लगा कि
बोलने के लिए जीभ का होना भी ज़रूरी नहीं
तब एक आदमी ने काट दी जीभ
अपने ही दाँतों से
इन दिनों कुछ मूक बधिर बालक
सड़कों पर घूम रहे हैं
यह समय नारों का नहीं हो सकता।
इसके अतिरिक्त वर्तमान राजनीति के स्वरूप को नये बिम्ब के साथ कुछ अलग तरीके से पेश किया गया है-
हालांकि जंगल में बैठक जारी है मकड़ियों की
सबसे युवा मकड़ी का सम्बोधन चल रहा है-
एक होने को हम शेर को बाँध सकतीं हैं।
अभिधार्थ में यह दक्षिणपंथ की ओर तथा व्यंग्यार्थ में वामपंथ की पक्षधर कविता ने कवि को तटस्थ बनाये रखा है। यही कवि का धर्म है, गणेश जी ने यह धर्म बहुत सलीके से निभाया है।
यदि कविताओं की थाह को और गहराई से देखा जाए तो यह संग्रह काव्य-बोध का निरंतर विस्तार करता हुआ हर व्यक्ति के भीतर संवेदना को फूंकने का कार्य इतनी तरतीबी से करता है कि हृदय में कोई तीक्ष्ण हूक सी उठती हुई प्रतीत होती है। है। एक अनाम-सी व्यग्रता सम्पूर्ण व्यक्तित्व पर छाई रहती है और कुछ कर गुज़रने की उत्कट भावना हमारी आत्मा को झिंझोड़ती रहती है।
कविताओं में ज़िंदगी के बहुत से रंग हैं। अपनी कविता ‘वह झरने से लौट आया’ में जीवन के संघर्ष को बयां करते हुए वे कहते हैं-
वह झरने से लौट आया
और लौटते बार
कुछ बूँद अपनी आँखों में भरकर सोच रहा है
कि जो लिखा गया है
वह तो मिट गया ज़हन से कब का
जो अ-लिखा है
क्या उसे उकेरना ज़रूरी है
या कि जो लिखा गया है
उसे भी मिटा देना होगा अंतिम आखर तक।
कवि के बारे में मैं उन्हीं के शब्दों को दोहराऊंगा और उनकी रचनाधर्मिता को देखते हुए यही कहूंगा-
उस पर शक करना कठिन नहीं होगा
वो कविता की लय जानता है
वो जानता है यह भी कि
आग से खेलना उतना ख़तरनाक नहीं होता
जितना भूख से वो
खाली पेट आग पर चल लेता है।
कविता ने भूख को विभिन्न दृष्टियों से चित्र की तरह उकेर कर पाठकों को स्वयं से संवेदना के मूल तक जोड़ा है। कविता के तने से गले लगकर पाठक कहीं कहीं कवि के गले लगना चाहता है। एक कविता को कितने संदर्भों में समझा जा सकता है। इसका उदाहरण पेश किया है कविता 'उसकी पीठ फिर झुक जाती है' में, कवि महोदय कहते हैं-
पहले वह कोट पहनता है
ताकि पीठ की छीलन रुके
फिर वह गाची को कमर पर
कई -कई घेरे लपेटता है
ताकि भूख छिपी रह सके
इस मजबूत कमरबंद के पीछे
वरना भूख का क्या है
पेट से उछलकर
सीधे सड़क पर आ जाती है।
'ज़ोरदार सन्नाटा' कविता में कवि कहते हैं-
टूटते रिश्ते में न दृश्य होते हैं
न आवाज़
बस एक ज़ोरदार सन्नाटा छाया रहता है
भीतर भी और बाहर भी
इंसान कहीं का नहीं रहता फिर
भीतर भी और बाहर भी।
कविताओं में मौसम से रंग न हों, ऐसा भला कहीं होता है। दिलकश मौसम में ही कविताएं परवान चढ़ती हैं। कवि ने बसन्त के ख़ुशनुमा रंगों, हवा के बर्ताव, नदियों की कलकल, झरनों का संगीत, बच्चों की हँसी, वृक्षारोपण किस ओर इशारा नहीं किया! कविताओं में जीवन के हर पहलू को बहुत ही शालीनता से छुआ गया है। कहीं भी कवि उग्र नहीं होते, कविताओं का मर्म उग्र होना भी नहीं चाहिए वरना मूल स्वरूप नष्ट होकर हम उसी ढ़र्रे पर आ लौटते हैं जिनका हमने कविताओं में विरोध किया होता है।
गणेश गनी ने समाज में फैली बुराइयों और दरकती मानवीय संवेदनाओं, सभी पर कवि ने चिंतन किया है। इतना ही नहीं, कवि ने निराशा के इस घने अंधकार में भी आस का एक नन्हा दीया जलाकर रखा है। मगर वे अपनी किसी भी बात को अभिधार्थ लिए गद्यात्मक शैली में कहने से बचते हैं। काव्य को काव्य की तरह ही ढाला गया है। यह कवि की उत्कृष्टता है।
बहरहाल, भावनाओं के अलावा काव्य सृजन के मामले में भी कविताएँ उत्कृष्ट हैं। कविता की भाषा में प्रवाह है, एक लय है। कवि ने कम से कम शब्दों में प्रवाहपूर्ण सारगर्भित बात कही है। कविताओं में शिल्प सौंदर्य है। कवि को अच्छे से मालूम है कि उसे अपनी भावनाओं को किन शब्दों में और किन बिम्बों के माध्यम से प्रकट करना है। और यही बिम्ब विधान पाठक को स्थायित्व प्रदान करते हैं। कविता में चिंतन और विचारों को सहज और सरल तरीक़े से पेश किया गया है, जिससे कविता का अर्थ पाठक को सहजता से समझ आ जाता है। काव्य प्रेमियों के लिए यह एक अच्छा कविता संग्रह है।
कवि स्वयं अपनी ही एक कविता में कहते हैं-
कविता रोटी नहीं, सुकून देती हैं।
युद्ध को समर्थन देने वाली उन्मादी भीड़ को समझाने के लिए कवि ने महाभारत के पात्र अश्वत्थामा को चुना है। कविता 'कितनी साँसे पिस गयीं' में वे उद्बोधन देकर पूछते हैं-
अब युद्ध समाप्त हो रहा है
हे अश्वत्थामा!
तुम्हे अमरत्व का वरदान है
और माथे पर रिसते घाव का शाप भी
तुम्ही बताओ ज़रा
इनमें से जीत किसकी हुई?
कवियों ने सदैव ही समाज में संवेदना फूंकने को प्रमुखता दी है और कुछ कवि और लेखकों का स्वर तो इतना मुखर रहा है कि उनकी हत्या की गयी। कविता असमानता, व्याप्त बुराइयों और कुप्रचलित कुप्रथाओं का विरोध करने का एक बहुत ही धारदार ज़रिया है। इसी को कवि 'पहरे' कविता में शब्दों के संदर्भ में बताते हुए सबको आगाह करते हैं-
शब्द कहीं हथियार न बन जायें
इसलिए वे चाहते हैं शब्दों को मार डालना
या उनकी जुबान काट डालना
या कम से कम
शब्दों के अर्थ ही
बदल डालना चाहते हैं वे।
कवि को अच्छे से मालूम है कि उसे अपनी भावनाओं को किन शब्दों में और किन बिम्बों के माध्यम से प्रकट करना है। और यही बिम्ब विधान पाठक को स्थायित्व प्रदान करते हैं। कविता 'आग' के प्रारंभ की पंक्तियों पर ग़ौर कीजिए।
चूल्हे की आग
और पेट की आग का
बड़ा गहरा नाता है
एक जलती है तो
दूसरी बुझती है।
कवि ने अपनी कविताओं में अत्यंत मोहक और विषयानुकूल शब्दों का चयन किया है। सभी कविताओं में एक बेहतरीन प्रवाह है, जो काव्य-पाठ सा आनंद देता है। कई कविताएँ समाज और संस्कृति पर थोड़ा रुककर सोचने की मांग करती हैं और बेहतर मनुष्य बनने की सिफारिश।
एक दिन सब ऋतुएँ
उमड़कर किताबों में समा गयीं
उस दिन लगा
किताबों में भी बसते हैं मौसम
किताबें खोली तो देखा
बादल धो रहे हैं अपराधों के दाग़
लाल पंखों वाली चिड़िया
आकाशवर्णी अण्डों को से रही है
सीलन भरी दीवारों से एक कनखजूरा
बाहर आ रहा है धीमे- धीमे
यानि कि ऋतु फिर बदल रही है।
कविता में चिंतन और विचारों को सहज और सरल तरीक़े से पेश किया गया है, जिससे कविता का अर्थ पाठक को सहजता से समझ आ जाता है।
'जूं के पेट में हाथी' कोई विरला ही ऐसा सोच सकता है। कविता ने नये आयाम बाँधे हैं।
सच में समय बदल भी गया है
ऐसा उसे यकीन होने लगा है
किसान कम्पनी में क्लर्क हो गया
और गडरिया सिक्योरिटी गार्ड
कसाई भेड़-बकरियाँ हाँक रहा है
इस बीच बड़े मालिक सब से कह रहे हैं
जूं के पेट से हाथी पैदा होता है शहर में
उसके हाथों में पंख लगे हों जैसे
कि शहर का सपना दूर-दूर तक चहकने लगा है।
संग्रह की कविताओं में मानवीय अनुभवों और उनके सूक्ष्मतम निहितार्थों के साथ-साथ मानव और प्राकृतिक दुनिया के अलग-अलग पड़ावों के मार्मिक अनुभवों-प्रसंगों को उभारने वाले बिंब हैं। कविताओं में निहित प्रश्नाकुलता, संवादधर्मिता, आश्चर्य-विस्मय और व्यंग्य की खूबियां उन्हें बार-बार पढ़ने और सोचने पर मजबूर करती हैं। कवि Ganesh Gani को अपार शुभकामनाएँ।
पुस्तक समीक्षा ✍️ Rahul Boyal
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