Saturday, 1 February 2020

ज़िन्दगी

कुछ तो अदब के नाम पे निशां रहने दो।
जल जाने दो मकान पर धुंआ रहने दो।

कब तक पहरवी झूठ की करते रहोगे तुम।
कभी तो अपने मुंह में अपनी ज़बां रहने दो।

जिस्म जलना तो बस एक रिवायत है मगर।
ज़िंदा हो तो ज़िन्दगी के हर इम्तेहां रहने दो।

आओ।हो जाए फैसला अब इस जंग का।
एक तरफ मुझे एक तरफ ये कारवां रहने दो।

मत दिखाओ हुनर बुलंदियों तक पहुंचने का।
परिंदों के हिस्से में भी खुला आसमां रहने दो।

ये दरख़्त,ये मचलती हवा और ये खिलते गुल।
यहां शाखों पर परिंदों की कोई दुकां रहने दो।

✍️ सतीश कुमार

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