बारहवीं कक्षा उतीर्ण करते ही मेरे जैसे मध्यवती वर्ग के लड़कों में नौकरी करने का अजीब सा शौक लग जाता है। ख़ैर, उस वक्त मेरी आयु 18 वर्ष से कम होने के कारण मुझे कोई नौकरी न मिल पाई। मेरा यह शौक पूरा हुआ कॉलेज के द्वितीय वर्ष में। कॉलेज की छुट्टियां थी, मेरे पास दो महीने का वक्त था अतः मै “विशाल मेगा मार्ट'' में बतौर "असिस्टेन्ट एम्पलॉयी" के रूप में 'पार्ट टाईम' जॉब करने लग गया। कहने को तो ये नौकरी 'पार्ट टाईम' थी लेकिन असल मे मैं इसे "फुल्ल टाईम" किया करता था। ऐसा इसलिए, क्योंकि मैं लोगों के सामने ये बात रखना चाहता था कि ये मैं कॉलेज के साथ-साथ पार्ट-टाइम जॉब करके अच्छा खासा जेबखर्च भी कमा रहा हुँ।
उस दिन मैनेजर साहब ने मुझे बुलाकर कहा ''बेटा किरनेश, मुल्ला जी के साथ स्टोर रूम में जाओ। मुल्ला जी जो-जो बोलते जाएंगे, लिखते रहना । ये दरवाजे की चाबी है, जाओ।"
मुल्ला जी कबाड़ी थे। उन्हें दुकान की रद्दी ले जाने का काम मिला था। यहाँ गौर करने की बात यह है कि कबाडी होने के बावजूद भी उन्हें लोग 'जी' कह कर संबोधित करते थे। मुल्ला जी को देखकर मैं यह तो समझ गया था कि वे व्यक्तित्व के धनी हैं। उनकी वेशभषा साधारण मानस की तरह थी । लम्बा भूरा कुरता, छापेदार धोती, पैनी नोक वाले जूते और बाजू में कोई पुरानी कंपनी की 'सेकिंड हैंड घडी'। लम्बा कद, लम्बी-2 सफेद दाढ़ी और गोल सफेद टोपी से वे असली मुसलमान को सार्थकता को सिद्ध करते थे।
मुल्ला जी कम बोलने थे और जब भी कर बोलते थे तो लगता था मानो इनके कथन के अतिरिक्त दुनिया में कोई और सच नहीं है। वे रद्दी तोल रहे थे और मैं लिखे जा रहा था- पॉलीथीन 35 किलो, गत्ता 52 किलो, कागज 43 किलो और अन्य
अतिरिक्त कुड़ा 7 किलो। मैं मुल्ला जी के लड़कों से ये सोचकर वार्तालाप करने की कोशिश कर रहा था कि इस बीच मुल्ला जी की जुबान खुले और उनके मुख से उनके जीवन के अनमोल अनुभव फूट पड़ें। लेकिन मुल्ला जी चुप्पी साधे अपना काम किए जा रहे थे। मैं मन ही मन सोचे जा रहा था कि मुल्ला जी इतनी इज्जत पाने के बाद भी इसी पेशे में क्यों कार्यरत है। हो सकता है कि बचपन में इनके साथ कुछ अनचाही घटना घटित हुई हो जिसके परिणामस्वरूप मुल्ला जी को कबाड़ियों के साथ शामिल होना पड़ा हो। परन्तु अब तो हालात सुधर गए है, अपनी दुकान, काम करने के लिए लड़के और सबसे महत्वपूर्ण लोगों ने इज्जत भी बक्शी है। मुल्ला जी को यह नीच कार्य छोड़ के घर बैठकर इज्जत की रोटी खानी चाहिए।
हालांकि उनकी उम्र हो चुकी थी फिर भी अगर कुछ करना है तो कबाड़ उठाने के अतिरिक्त कोई अन्य काम करना चाहिए।
मैं अपनी सोच की गहरी खाई में पहुँच गया था। सवालों पे सवाल। आखिर ऐसा है तो क्यों, इस चीज में ऐसा बदलाव होना चाहिए,
मुल्ला जी इसी पेशे में क्यों है? ढिमका फलाना। तभी मुझे प्रतीत हुआ कि जैसे मानो मुल्ला जी का व्यक्तित्व और सम्पूर्ण जीवन कह रहा हो कि आखिर क्या गलत है हमारे पेशे में? क्या गलत है समाज की गंदगी को साफ करने में? क्या कबाड़ी गली-गली घूमकर सारे शहर का कूड़ा साफ करके कोई गुनाह करते हैं?
हालांकि मुल्ला जी अभी भी मौन थे शायद वे मेरी मनोदशा को भांप गए हो इसलिए शायद अपनी जवानी की गहरी यादों में उतर गए हों। उनकी हल्की सी मुस्कान मानों इस बात की तरफ इशारा कर रही हो कि वे अपनी जगह पर सही है, उन्हें अपनी वर्तमान स्थिति पर गर्व है। आखिर हों भी क्यों ना, मुल्ला जी ईमानदार हैं। जिन्दगी भर मेहनत की रोटी खाई है उन्होंने । न तो वे
चोरी कर रहे है, और न ही किसी के पेट पर लात मारकर अजीविका कमा रहे। और रही बात बदनामी वाले पेशे की, तो और भी तो कई पेशे है जिनपर कार्यरत लोग गलत कार्य को अंजाम देते। पेशा सही और काम गलत । ऐसे लोगों से मुल्ला जी शत प्रतिशत अच्छा काम कर रहे थे।
मुल्ला जी की बंद जुबान से में सब कुछ सुने जा रहा था। फिर अन्दर से आवाज आई कि जिस इन्सान का व्यवहार और व्यक्तित्व इतना सब कुछ बयां कर सकता है, उसके मुख से कितना ज्ञान बह सकता है।
✍️ किरनेश पुंडीर
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