अजीब दौर में थे ता-उम्र तो किसी सफ़र के रहें।
हम आदमी तेरे,न घर के रहें न किसी दर के रहें।
क्यूं रोईए आज अपने ही ज़ख्मों पर बारहा यहां।
तुम ने कहा पत्थर के है, चलो हम पत्थर के रहें।
उठाते चलिए बड़े नाज़ से अपना ही खूं-ए-जिगर।
संभाले न संभले है,जो दर्द दिल में उम्रभर के रहें।
माना तुमने किया रुख़्सत हमें अपने अंदाज़ से।
तुम्हें भी जां,ख़ुद से जुदा,हम भी तो कर के रहें।
हम वजूद क्या खोते भला,के सदियों से हम तो।
मुश्त-ए-ख़ाक थे, ताज हम न किसी सर के रहें।
की कोशिशें लाख़ पर तेरी यादों से न गुज़र सकें।
थी जो आतिश-ए-दिल,उनसे तो हम गुज़र के रहें।
✍️ सतीश कुमार
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