कविता से भी प्यास भली है,
लगता जैसे धूप पली है ।
अपने घर के अन्दर जैसे,
वृंदावन की कुंज गली है ।
भावों नें उत्पात मचाया ,
उल्टे पथ पर आज चली है ।
शब्द-कोश के तीर अनोखे,
टाटगजूली रोज मली है ।
मानवता का रोना रोकर ,
भूखी जनता खूब छली है ।
भारत - भू है सबसे न्यारी ,
नारंगी नव - रंग डली है ।
छन्द "नवीन" पुरानी बातें ,
मन-मरजी की ज्योति जली है।
✍️ नवीन हलदूणवी
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