कविता का सफर
जब भी कभी,
काग़ज़ के शिकार पर निकलता हूँ
तो कलम में स्याही भरते - भरते
सोचता हूँ
क्या मेरे धमाके की आवाज
सुनेगा कोई?
या
इधर-उधर से उभर आएंगी ये पहाड़ियां,
उस ध्वनि के
आंदोलित होने से पहले!!!
कुछ भी हो
अपने शिकार पर पहुंचकर
करता हूँ जब चीर-फाड़ शुरु
तो देखकर सन्न रह जाता हूँ
और, तभी
कागज के गर्भ से निकलती है
'कविता'।
नहीं होता कविता का
कोई एक अमुक जन्मदाता
और न वो पैदा होती है
नौ माह बाद,
न ही वो निकलती है किसी बीज
के अंकुरित होने से
बल्कि, ये एक ऐसी गोली है
जिसका बारुद होता है
कवि के सीने में
और जब ये छूट जाती है
रोशनाई के गर्भाशय से
काग़ज़ की गोद में
तो इसका पोषण करता है
पाठक।
ऐसे में वो परिष्कृत कर देता है
इसका भविष्य
इतना सा ही सफर नहीं है
एक कविता का
कविता तो जिंदा रहती है
एक खत्म ना होने वाले समुद्री रस्ते की तरह
पेड़, काग़ज़ कलम, बारुद, कवि और एक पाठक पर
पर्दा गिर जाने के बाद भी।
✍️ दीपक भारद्वाज
कुमारसैन, शिमला, हि. प्र.
Shukriya sir
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