Tuesday, 21 January 2020

दास्तां ए मुहब्बत

यही गौर करने में के कौन किधर जा रहा है?
मुझे मालूम न था,हाथों से मुकद्दर जा रहा है।

मैं बहता हूं तेरे चश्मों से तुझे पता भी नहीं।
अरे!गौर कर,घर का आदमी बाहर जा रहा है।

यही सोच के तो करता रहा मैं इंतज़ार तेरा।
मुझे लगा था के तू अभी दफ़्तर जा रहा है।

तारीख़-ए-माह तो कोई तय कर वस्ल की।
मेरे अंदर से तुझे खोने का डर जा रहा है।

मैं किस तरह हारा हूं, ख़ुद अपने आप से।
लोग कहते हैं के देखो सिकंदर जा रहा है।

तुझे भूलना मुमकिन नहीं पर तू भूल रहा है।
तुझे जाना कहां था और किधर जा रहा है।

✍️ सतीश कुमार

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