सब सोचते हैं के छिपकर रास्तों पर चल रहे हैं।
मगर सब के गुनाह अपने कांधों पर चल रहे हैं।
कहीं खो गया है हर आदमी के भीतर का आदमी।
अजीब मसअला है के अपनी लाशों पर चल रहे हैं।
अब ये भी उतर जाए जो बोझ है ज़िन्दगी का।
यहां तो तीरगी में बारूद के ढ़ेरों पर चल रहे हैं।
हमें उड़ने का ज़रा सा हुनर क्या आ गया यहां।
देखो ये तीर कैसे अब हम परिंदों पर चल रहे हैं।
हमें तेरे शहर की बारिशों का ख़ौफ ही नहीं है।
हम ज़मीं पर नहीं,उठते बादलों पर चल रहे हैं।
न जाने क्या हो रहा है गुनहगारों का पता नहीं।
यहां तो मुकदमें हज़ार बेगुनाहों पर चल रहे हैं।
✍️ सतीश शर्मा
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