साहित्य समाज का दर्पण होता है। समाज मे जो भी अच्छा व बुरा होता है साहित्य उसे सच के साथ दिखाता है। लेखक जो भी सोचता है वैसा ही साहित्य में उसकी कलम चलेगी । लेखक की एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी बनती है कि वो निष्पक्ष लिखे।
जब कभी हम दर्पण के सम्मुख जिस मनोदशा से खड़े होते हैं वैसा ही हमारा मुख दर्पण में प्रतिबिम्बित होता है ,यदि अंदर से दुःखी तो चेहरा उदास, प्रफुल्लित तो चेहरा खिला, यदि आक्रोश है तो वैसी ही भाव भंगिमा वाला प्रतिबिम्ब बनता है, ठीक उसी प्रकार से साहित्य भी दर्पण की भांति है,समाज की दशा को प्रतिबिम्बित करता है, साहित्य किस प्रकार का है या समाज पर किस तरह का प्रभाव डालता है यह साहित्यकार की कलम की सोच पर निर्भर करता है ।
कलमकार की सोच जैसी होगी वैसा ही साहित्य उसकी कलम लिखेगी, सौन्दर्य प्रेमी साहित्यकार श्रृंगार से साहित्य सजाता है जो समाज में स्वस्थ साहित्य जन्मेगा, कुरीतियों पर कड़े प्रहार करनें वाली कलम हमेशा समाज को आईना दिखाती, देशप्रेमी कलम समाज में देश के प्रति अनुराग उत्पन्न करेगी, हमारे समाज की उन्नति कुछ हद तक साहित्य पर निर्भर है, सभ्य साहित्य स्वस्थ समाज को जन्म देता है और यह कलमकार की मानसिकता पर निर्भर करता है । हम आजाद भारत में रहते हैं जहां सबको अपनी सोच को रखनें की पूरी स्वतंत्रता है, आधुनिकता की दौड़ से आज का साहित्य भी अछूता नहीं है, कविता,लेख कहानियां सभी पर आजकल आधुनिकता की छाप पूरी तरह दिखायी देती है, रैप के रूप में कवितायें ,साहित्य गढ़े जा रहे, जिसका मूल केवल लिखकर वाहवाही लूटना या तुकबंदी कर कुछ भी लिख देना, जिसमें कुछ समाज के लिये कुछ भी आदर्श स्थापित कर पानें में असमर्थ रहता है, चार लाइनें लिखकर आज हर कोई साहित्यकार बनने का ख्वाब देखने लगता है, परन्तु सच्चा साहित्य तो वह है जिससे समाज में बदलाव लाया जा सके कुछ उद्देश्यात्मक हो, समाज की उन्नति में सहायक हो, साहित्यकारिता की आड़ में आजकल लोग बड़े बड़े ऐजेन्डे चला रहे, कृतियों के माध्यम से साजिशें गढ़ रहे, साहित्य उद्देश्यात्मक, प्रेरणात्मक व तथ्य की सजीवता वाला होना चाहिये ताकि हमारी भावी पीढ़ियां कुछ ग्रहण कर सकें ।
कलम की ताकत से ही बहुत कुछ किया जा सकता है और ऐसा करना एक स्वस्थ विचारक ही कलम की गति से समाज को दिशा दे सकता है। प्राचीन काल हमारे ग्रंथ,वेद पुराण, समाज को आदिकाल से ही दिशानिर्देश देते रहे हैं पर आज की हावी होती आधुनिकता कहीं कहीं समाज के दिशा भटकाव में मदद कर रही है, कुछ हद तक हमारे ढोंगी बाबाओं का भी हाथ है जो अपने प्रवचनों से लोगों में भ्रमात्मक स्थिति पैदा कर भटकाते हैं, ऐसे में कलमकार ही समाज को सही दिशा दे सकता है ।
स्वस्थ साहित्य उस उजले दर्पण सदृश होता है जिसमें समाज का प्रतिबिम्बित साफ साफ प्रतिबिम्बित होता है, और इस साहित्य दर्पण को जब हम साफसुथरा रखेंगे तभी हमें प्रतिरूप साफ दिखेगा, यदि दर्पण ही धुंधला होगा तो कुछ दिखेगा कैसे इसलिए कह सकते है कि कलम में बहुत बड़ी ताकत होती है इसके माध्यम से सामाजिक और सकारात्मक बदलाव किए जा सकते हैं और अच्छे राष्ट्र निर्माण की कल्पना कलम के माध्यम से कर सकते हैं।
अंत में, हिन्दी साहित्य के मूर्धन्य कवि, प्रयोगवाद के प्रवर्तक सच्चिदानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय' की पंक्तियां द्रष्टव्य है :-
कहा सागर ने : चुप रहो!
मैं अपनी अबाधता जैसे सहता हूँ,
अपनी मर्यादा तुम सहो।
जिसे बाँध तुम नहीं सकते
उस में अखिन्न मन बहो।
मौन भी अभिव्यंजना है
जितना तुम्हारा सच है उतना ही कहो।
✍️ डॉ. सुरेन्द्र शर्मा
✍️ डॉ. सुरेन्द्र शर्मा
अति उत्तम
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