उलझी हुई ज़िंदगी में सुलझापन ढूंढ़ता हूँ,
बाजीचा लेकर मैं आज बचपन ढूंढ़ता हूँ ।
वाजिब होगा अब मेरा खुद में लौट जाना,
ख़ुद को खोकर मैं आज खुदी को ढूंढ़ता हूँ।।
बुनियादें अकीद थी मगर अर्श हवा हुए,
कनिश्त पर अब खड़ा मैं अल्लाह ढूंढ़ता हूँ।
मुस्तैद हैं ज़माने में सब आदिलों की मानिंद,
अदालत में अब खडा मैं कातिल ढूँढता हूँ ।।
देख रहा हूं माटी के पुतलों को मैं मीनार पर नशीन,
कर सके मेरे शेरों की हिफाज़त वो काबिल ढूँढता हूं।।
✍️ सतीश कुमार
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