बहुत दिन हुए प्रेयसी से मिलने का समय नहीं मिला। व्यस्तता इतनी कि याद भी नहीं कर सका। एक दिन चौदवीं की रात में गहरी नींद में सोया हुआ अचानक ख्यालों के समुन्द्र में कहीं दूर तक चला गया जैसे मांझी कश्ती में सवार राही को समुन्द्र के बीच ले जाकर किनारों की दूरी से अनभिज्ञ,आदि और अंत से अपरिचित, ठीक वैसे ही प्रेयसी के अक्स को निहारता हुआ डूबता चला गया। अज़ब सा समा ढह गया जब वो सामने आई और मुस्कुरा कर हल्के से मीठी सी आवाज़ में कहने लगी, प्रियतम हम आपके सामने है आप से मिलन को आतुर है,व्याकुल है मन इतना जैसे चकोर चांदनी के लिए इंतजार करता है,पीहू अपनी प्यास को बुझाने के लिए घनघोर घटाओं का इंतजार करता है। मेरा मन बस तुमसे ही कुछ ऐसा मोहित हो गया है कि सुधबुध नहीं जमाने की, मेरा तन तुमसे प्रगाढ़ आलिंगन को व्याकुल था । मैं हैरान था कि जो अगन मेरे अंदर ज्वलित हो रही थी उतनी उधर भी थी।
मैं निशब्द,ताकता रहा निहारता रहा। मन मैं प्रसन्नता इतनी थी कि ख़ुशी का ठिकाना न था । मन में बहुत सवाल थे पर लब्ज़ हिलने को तैयार न थे। नागपाश की तरह लिपट गई, मोह पाश में इतना बँध गया कि सब कुछ उसी में नज़र आने लगा वो खुशी का पल इतना खुशनुमा था कि दुनिया बंद आँखो में दिखने लगी। उसकी आँखों में अपने चेहरे को देखता रहा। तने हुए गांडीव की तरह अंगड़ाई लेते हुए आँखों से खिलवाड़ ऐसा मानो पीनाक से निकलते शर किसी मनचले हिरण को घायल कर रहे थे। इतने खूबसूरत नयन कि हरिणी प्रतिस्पर्धा से भाग जाए, अंगप्रत्यंग में इतनी तपिश काठ जलकर राख हो जाए। लबों की लालीमा के आगे डूबते सूरज की लालीमा हार जाए। मैं घायल सा बेसुध हो गया कि अचानक आँख खुली और रात खुल गयी।
✍️ राजेश सारस्वत
acha likha hai
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